सरपंच-पतिवाद

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Published on: July 12, 2023

स्रोत – द हिन्दू 

चर्चा में क्यों?  

हाल ही में मुंडोना ग्रामीण विकास फाउंडेशन, एक गैर सरकारी संगठन (NGO) ने पंचायत प्रणाली में "सरपंच-पतिवाद" के मुद्दे के संबंध में भारत के सर्वोच्च न्यायालय का रुख किया है।

हालाँकि सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि इस मुद्दे को सीधे संबोधित करना उसके अधिकार क्षेत्र में नहीं है। इसके बदले न्यायालय ने NGO को पंचायती राज मंत्रालय से संपर्क करने की सलाह दी और सरकार से महिला सशक्तीकरण एवं आरक्षण के उद्देश्यों को लागू करने के लिये उचित कार्रवाई करने का आग्रह किया।

सरपंच-पतिवाद क्या है?

  • सरपंच-पतिवाद एक ऐसा शब्द है जिसका प्रयोग उस स्थिति का वर्णन करने के लिये किया जाता है जहाँ पुरुष "सरपंच-पति, सरपंच-देवर, प्रधान-पति" आदि के रूप में कार्य करते हैं, जो पंचायत व्यवस्था में सरपंच या प्रधान के रूप में चयनित महिलाओं के संबद्ध पद के पार्श्व में वास्तविक राजनीतिक और निर्णायक शक्ति रखते हैं। 
  • सरपंच-पतिवाद की अवधारणा, पंचायतों में महिला आरक्षण की भावना और उद्देश्य को कमज़ोर करती है, जिसे 73वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम, 1992 द्वारा ज़मीनी स्तर पर महिलाओं को सशक्त बनाने और लोकतंत्र के प्रतिनिधि के माध्यम से उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थितियों में सुधार करने के लिये पेश किया गया था।
  • सरपंच-पतिवाद महिलाओं के संवैधानिक अधिकारों और सम्मान का भी उल्लंघन करता है, जो ज़मीनी स्तर की राजनीति में "बेपर्दा पत्नियों और बहुओं" तक सीमित रह जाती हैं। 
  • परिणामस्वरूप वे अपने संस्थान के सार्वजनिक मामलों में स्वायत्तता और प्रभाव खो देते हैं। 
  • सरपंच-पतिवाद स्थानीय स्तर पर शासन एवं सेवा वितरण की गुणवत्ता और प्रभावशीलता को भी प्रभावित करता है, क्योंकि यह निर्वाचित प्रतिनिधियों तथा लोगों के बीच एक अंतर पैदा करता है। इससे भ्रष्टाचार और धन का दुरुपयोग भी होता है।

सरपंच-पतिवाद से निपटने में चुनौतियाँ: 

सार्वजनिक जीवन में महिलाओं की भागीदारी तथा सशक्तीकरण में बाधा डालने वाले पितृसत्तात्मक मानदंडों, दृष्टिकोण और प्रथाओं पर काबू पाना।

उन प्रमुख समूहों या पार्टियों के राजनीतिक हस्तक्षेप, दबाव और हिंसा का विरोध करना जो पंचायतों को नियंत्रित या प्रभावित करना चाहते हैं।

गरीबी, अशिक्षा, गतिशीलता की कमी आदि जैसी सामाजिक-आर्थिक बाधाएँ, जो संसाधनों और अवसरों तक महिलाओं की पहुँच को सीमित करती हैं।

महिलाओं के स्वास्थ्य या कल्याण से समझौता किये बिना घरेलू ज़िम्मेदारियों और सार्वजनिक भूमिकाओं को संतुलित करना।

PRI में महिलाओं के प्रतिनिधित्व हेतु संवैधानिक प्रावधान: 

  1. वर्ष 1992 में 73वें संविधान संशोधन अधिनियम के तहत भारत के संविधान का अनुच्छेद 243D देश भर में PRI में महिलाओं के लिये कम-से-कम एक-तिहाई आरक्षण का आदेश देता है।
  2. आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, बिहार आदि कई राज्यों में उनसे संबंधित राज्य पंचायती राज अधिनियमों में इसे बढ़ाकर 50% आरक्षण कर दिया गया है।
  3. अनुच्छेद 243D में यह भी प्रावधान है कि  PRIs में प्रत्येक स्तर पर अध्यक्षों की सीटों और कार्यालयों की कुल संख्या का एक-तिहाई महिलाओं के लिये आरक्षित किया जाएगा, जिन्हें पंचायत में विभिन्न निर्वाचन क्षेत्रों में चक्रीय प्रक्रिया द्वारा आवंटित किया जाएगा।
  4. महिलाओं के लिये अध्यक्षों की सीटों और कार्यालयों का ऐसा आरक्षण PRIs के तीनों स्तरों में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिये भी आरक्षित है।

PRIs में महिलाओं को बढ़ावा देने के लिये सरकार द्वारा प्रयास:

राष्ट्रीय ग्राम स्वराज अभियान (RGSA):  

RGSA को वर्ष 2018 में उत्तरदायी ग्रामीण प्रशासन के लिये PRIs की क्षमताओं को बढ़ाने, SDGs के साथ संरेखित टिकाऊ समाधानों के लिये प्रौद्योगिकी और संसाधनों का लाभ उठाने हेतु लॉन्च किया गया था। इसने PRIs में महिलाओं की भागीदारी को भी प्रोत्साहित किया।

ग्राम पंचायत विकास योजना (GPDP): 

GPDP दिशा-निर्देश जो महिला सशक्तीकरण के लिये प्रासंगिक हैं, उनमें GPDP के बजट, योजना, कार्यान्वयन और निगरानी में महिलाओं की सक्रिय भागीदारी के साथ  सामान्य ग्राम सभाओं से पहले महिला सभाओं का आयोजन करना तथा  उन्हें ग्राम सभाओं और GPDP में सम्मिलित करना शामिल है।

आगे की राह

  1. महिला प्रतिनिधियों के लिये क्षमता निर्माण और नेतृत्व विकास कार्यक्रम आयोजित करना।
  2. महिला प्रतिनिधियों की भागीदारी और जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिये ग्राम सभाओं की भूमिका और कार्यप्रणाली को मज़बूत बनाना।
  3. लैंगिक समानता और लोकतंत्र के विषय में पुरुषों और महिलाओं के बीच जागरूकता तथा संवेदीकरण अभियान का आयोजन करना।
  4. महिला प्रतिनिधियों को पर्याप्त वित्तीय और प्रशासनिक सहायता सुनिश्चित करना।
  5. सरपंच-पतिवाद और छद्म राजनीति के अन्य रूपों को रोकने तथा दंडित करने के लिये कानून एवं नीतियाँ बनाना।
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