News Analysis / मिखाइल गोर्बाचेव - सोवियत संघ के अंतिम नेता
Published on: September 02, 2022
स्रोत: द इंडियन एक्सप्रेस
खबरों में क्यों?
हाल ही में सोवियत संघ के अंतिम नेता मिखाइल गोर्बाचेव का 91 वर्ष की आयु में निधन हो गया है।
मिखाइल गोर्बाचेव का योगदान:
परिचय:
एक युवानेता के रूप में मिखाइल गोर्बाचेव सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल हो गए, और स्टालिन की मृत्यु के बाद वे निकिता ख्रुश्चेव के स्टालिन के द्वारा लागू नीतियों में सुधार के प्रबल समर्थक बन गए।
उन्हें वर्ष 1970 में स्टावरोपोल क्षेत्रीय समिति के प्रथम पार्टी सचिव के रूप में चुना गया था।
वर्ष 1985 में उन्हें सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव के रूप में, दूसरे शब्दों में सरकार के वास्तविक शासक के रूप में चुना गया था।
उपलब्धियाँ:
प्रमुख सुधार:
इन्होंने "ग्लासनोस्त" और "पेरेस्त्रोइका" की नीतियों की शुरुआत की, जिसने भाषण तथा प्रेस की स्वतंत्रता और अर्थव्यवस्था के आर्थिक विस्तार में मदद की।
पेरेस्त्रोइका का अर्थ है "पुनर्गठन", विशेष रूप से साम्यवादी अर्थव्यवस्था और राजनीतिक व्यवस्था का सोवियत अर्थव्यवस्था में बाज़ार अर्थव्यवस्था की कुछ विशेषताओं को शामिल करके। इसके परिणामस्वरूप वित्तीय निर्णय लेने में विकेंद्रीकरण भी हुआ।
ग्लासनोस्त का अर्थ है- "खुलापन", विशेष रूप से सूचनाओं के संदर्भ में पारदर्शिता, इसी क्रम में सोवियत संघ का लोकतंत्रीकरण शुरू हुआ।
शस्त्रों में कमी पर ज़ोर:
उन्होंने दो विश्व युद्ध के बाद से यूरोप को विभाजित करने मुद्दों का समाधान करने और जर्मनी के एकीकरण के लिये संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ हथियारों में कमी के लिये समझौते कर पश्चिमी शक्तियों के साथ साझेदारी की।
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद सोवियत संघ द्वारा स्वयं और उसके आश्रित पूर्वी एवं मध्य यूरोपीय सहयोगियों को पश्चिम और अन्य गैर-कम्युनिस्ट देशों के साथ मुक्त संपर्क का अभाव ही प्रमुख राजनीतिक, सैन्य और वैचारिक अवरोध था।
शीत युद्ध की समाप्ति:
शीत युद्ध को समाप्त करने का श्रेय गोर्बाचेव को दिया जाता है, जिसके परिणामस्वरूप अलग-अलग देशों के रूप में सोवियत संघ का विघटन हुआ।
नोबेल शांति पुरुस्कार:
अमेरिका और सोवियत संघ के मध्य शीत युद्ध को समाप्त करने के उनके प्रयासों के लिये उन्हें वर्ष 1990 में नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।
भारत के साथ तत्कालीन संबंध:
गोर्बाचेव दो बार वर्ष 1986 और वर्ष 1988 में भारत आए थे।
उनका उद्देश्य यूरोप में अपने निरस्त्रीकरण की पहल को एशिया तक विस्तारित करना और भारतीय सहयोग को सुनिश्चित करना था।
सोवियत संघ के नेता के रूप में पदभार संभालने के बाद गोर्बाचेव की गैर-वारसा संधि वाले देश की यह पहली यात्रा थी।
तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने गोर्बाचेव को "शांति के धर्मयोद्धा" (Crusader for peace) की उपाधि से सम्मानित किया किया था।
यात्रा के दौरान भारत की संसद में उनके संबोधन को भारतीय और सोवियत मीडिया में अतिशयोक्तिपूर्ण कवरेज मिला और इसे भारतीय कूटनीति के एक उच्च बिंदु के रूप में देखा गया।
शीत युद्ध:
परिचय:
भारत की भूमिका:
गुटनिरपेक्ष आंदोलन:
गुटनिरपेक्ष आंदोलन की नीति ने औपचारिक रूप से खुद को संयुक्त राज्य या सोवियत संघ के साथ संरेखित करने की कोशिश नहीं की बल्कि स्वतंत्र या तटस्थ रहने की मांग की।
गुटनिरपेक्ष आंदोलन (NAM) की मूल अवधारणा वर्ष 1955 में इंडोनेशिया में आयोजित एशिया-अफ्रीका बांडुंग सम्मेलन में उत्पन्न हुई थी।
पहला NAM शिखर सम्मेलन सितंबर 1961 में बेलग्रेड, यूगोस्लाविया में हुआ था।
उद्देश्य:
साम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद, नव-उपनिवेशवाद, नस्लवाद और विदेशी अधीनता के सभी रूपों के खिलाफ उनके संघर्ष में "गुटनिरपेक्ष देशों की राष्ट्रीय स्वतंत्रता, संप्रभुता, क्षेत्रीय अखंडता एवं सुरक्षा" सुनिश्चित करने के लिये वर्ष 1979 के हवाना घोषणा पत्र में संगठन का उद्देश्य तय किया गया था।
शीत युद्ध के दौर में गुटनिरपेक्ष आंदोलन ने विश्व व्यवस्था को स्थिर करने और शांति एवं सुरक्षा बनाए रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
तटस्थ कदम:
भारत महाशक्तियों के हितों की सेवा करने के बजाय अपने स्वयं के हितों की सेवा करते हुए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर निर्णय लेने और रुख अपनाने में सक्षम था।