भारत की अदालतों के लिए ADR क्यों महत्वपूर्ण है?

भारत की अदालतों के लिए ADR क्यों महत्वपूर्ण है?

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द हिंदू: 6 अक्टूबर 2025 को प्रकाशित।

 

समाचार में क्यों?

कानून और न्याय मंत्री अर्जुन राम मेघवाल ने हाल ही में भारत की सभ्यतागत परंपराओं से प्रेरित कानूनी सुधारों के प्रति सरकार की प्रतिबद्धता को दोहराया। उन्होंने “पंच परमेश्वर” सिद्धांत का उल्लेख किया — जो सामूहिक सहमति के माध्यम से विवादों को सुलझाने की पारंपरिक व्यवस्था है।

उन्होंने न्यायालयों में लंबित मामलों को कम करने और तेज़, कम-लागत व सामाजिक रूप से समावेशी न्याय प्रदान करने के लिए वैकल्पिक विवाद निपटान (ADR) प्रणाली को मजबूत करने की आवश्यकता पर बल दिया।

इंडिया जस्टिस रिपोर्ट 2025 और राष्ट्रीय न्यायिक डाटा ग्रिड (NJDG) के आँकड़ों के अनुसार भारत की अदालतों में कुल लंबित मामलों की संख्या 4.57 करोड़ से अधिक है, जो ADR प्रणालियों की ओर तात्कालिक ध्यान देने की मांग करती है।

 

ADR (वैकल्पिक विवाद निपटान) क्या है?

ADR (Alternative Dispute Resolution) का अर्थ है — अदालतों के बाहर विवादों को सुलझाने की विधियाँ। इसमें निम्नलिखित तरीके शामिल हैं:

मध्यस्थता (Arbitration) – एक निष्पक्ष मध्यस्थ द्वारा दिया गया बाध्यकारी निर्णय।

सुलह (Conciliation) – सुलहकर्ता की सहायता से गैर-बाध्यकारी समाधान।

मेडिएशन (Mediation) – आपसी सहमति पर आधारित स्वैच्छिक प्रक्रिया।

न्यायिक समझौता / लोक अदालत (Judicial Settlement / Lok Adalat) – समझौते के माध्यम से त्वरित और कम-लागत न्याय।

मुख्य विशेषता: ADR बातचीत और सहमति को प्रोत्साहित करता है, लम्बे मुकदमों से बचाता है और सौहार्दपूर्ण सामाजिक संबंधों को बढ़ावा देता है।

 

संवैधानिक और विधिक आधार:

संविधान का अनुच्छेद 39A राज्य को समान न्याय और निःशुल्क कानूनी सहायता प्रदान करने के लिए बाध्य करता है।

नागरिक प्रक्रिया संहिता, 1908 की धारा 89 में एडीआर तंत्र — मध्यस्थता, सुलह, मेडिएशन और लोक अदालतों — को स्पष्ट रूप से मान्यता दी गई है।

मध्यस्थता एवं सुलह अधिनियम, 1996 (संशोधित 2021) मध्यस्थता और सुलह प्रक्रियाओं के लिए विधिक ढांचा प्रदान करता है।

इस अधिनियम में विवाद निपटान के लिए अधिकतम 180 दिनों की समयसीमा तय की गई है।

विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम, 1987 लोक अदालतों को नियंत्रित करता है, जिसमें स्थायी लोक अदालत (धारा 22B) और राष्ट्रीय / ई-लोक अदालतें शामिल हैं।

 

समयसीमा और दक्षता:

ADR का उद्देश्य विवादों को 180 दिनों के भीतर सुलझाना है, जबकि पारंपरिक अदालतों में वर्षों या दशकों का समय लग सकता है।

पूर्व-मुकदमा मेडिएशन (Pre-litigation mediation) से विवाद अदालत तक पहुँचने से पहले ही सुलझाए जा सकते हैं, जिससे न्यायालयों पर भार नहीं बढ़ता।

यदि कोई पक्ष असंतुष्ट हो, तो वह दो मेडिएशन सत्रों के बाद प्रक्रिया से बाहर निकल सकता है — जिससे लचीलापन बना रहता है।

 

ADR न्यायालयों का बोझ कैसे कम करता है:

तेज़ विवाद निपटान: अदालतों के बाहर मामलों को सुलझाकर लंबित मामलों की संख्या घटाता है।

कम-लागत: नागरिकों और राज्य दोनों के लिए मुकदमेबाज़ी खर्च घटाता है।

जन-केंद्रित न्याय: समाजिक संवाद और भागीदारी को बढ़ावा देता है।

सामाजिक एकता को मजबूत करता है: सौहार्द बढ़ाता है और विरोधात्मक वातावरण कम करता है।

नए मामलों को रोकता है: पूर्व-मुकदमा मेडिएशन और लोक अदालतों के माध्यम से।

 

वर्तमान लंबित मामले और न्यायिक बोझ:

राष्ट्रीय न्यायिक डेटा ग्रिड (NJDG) के अनुसार (2025 तक):

कुल लंबित मामले: 4,57,96,239

सुप्रीम कोर्ट: 81,768

हाईकोर्ट्स: लगभग 62.9 लाख

जिला एवं अधीनस्थ न्यायालय: 3.9 करोड़ से अधिक

 

इंडिया जस्टिस रिपोर्ट 2025 के अनुसार:

रिक्तियों की दर: हाईकोर्ट्स में 33%, जिला न्यायालयों में 21%

न्यायिक भार: उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश और केरल के न्यायाधीशों पर 4,000 से अधिक मामलों का बोझ है।

अनेक मामले 10 वर्षों से अधिक समय से लंबित हैं।

 

सर्वाधिक लंबित मामलों वाले राज्य:

उत्तर प्रदेश, बिहार और आंध्र प्रदेश लंबित मामलों की संख्या में शीर्ष पर हैं।

इन राज्यों में ADR बुनियादी ढाँचे (जैसे मेडिएशन केंद्र और लोक अदालतें) का शीघ्र विस्तार आवश्यक है ताकि प्रति व्यक्ति न्याय वितरण को संतुलित और प्रभावी बनाया जा सके।

 

सामाजिक और संवैधानिक प्रभाव:

ADR संविधान के न्याय, समानता और बंधुता के आदर्शों का प्रतीक है।

पूर्व मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ के अनुसार, “मेडिएशन सामाजिक परिवर्तन का एक साधन है” जो सामाजिक मानदंडों को संवैधानिक मूल्यों के अनुरूप बनाता है।

संवाद और सहानुभूति के माध्यम से मेडिएशन लोगों को अपनी भाषा और परिस्थिति में न्याय प्राप्त करने की शक्ति देता है, जिससे समावेशिता और पारस्परिक सम्मान को बल मिलता है।

 

चुनौतियाँ और आगे की राह:

चुनौतियाँ:

ADR प्रणालियों के प्रति जागरूकता और विश्वास की कमी।

प्रशिक्षित मध्यस्थों और पंचों की कमी।

राज्यों में असमान कार्यान्वयन।

 

आगे की राह:

सभी नागरिक और वाणिज्यिक विवादों में पूर्व-मुकदमा मेडिएशन को अनिवार्य बनाया जाए।

लोक अदालतों और ई-लोक अदालतों को तकनीक और जन-जागरूकता के माध्यम से मजबूत किया जाए।

जिला स्तर पर अधिक मेडिएशन केंद्र स्थापित किए जाएँ।

सार्वजनिक कानूनी शिक्षा और मध्यस्थ प्रशिक्षण कार्यक्रमों को निरंतर बढ़ावा दिया जाए।

 

निष्कर्ष:

ADR तंत्र को मजबूत बनाना केवल एक कानूनी आवश्यकता नहीं बल्कि सामाजिक अनिवार्यता भी है।

4.5 करोड़ से अधिक लंबित मामलों और धीमी न्याय प्रक्रिया के बीच, ADR सुलभ, सस्ती और त्वरित न्याय का मार्ग प्रदान करता है।

यह संविधान के अनुच्छेद 39A की भावना —

“सभी के लिए न्याय” (Justice for All) — को साकार करने की दिशा में एक सशक्त कदम है।

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