मालेगांव विस्फोट के आरोपियों को क्यों रिहा किया गया?

मालेगांव विस्फोट के आरोपियों को क्यों रिहा किया गया?

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द हिंदू: 4 अगस्त 2025 को प्रकाशित।

 

चर्चा में क्यों है?

31 जुलाई 2025 को एक विशेष राष्ट्रीय जांच एजेंसी (NIA) अदालत ने 2008 मालेगांव बम विस्फोट मामले में सभी सात आरोपियों को बरी कर दिया। इस फैसले ने इसलिए राष्ट्रीय ध्यान आकर्षित किया क्योंकि इसमें आरोपी थे भाजपा सांसद प्रज्ञा सिंह ठाकुर और सेना के लेफ्टिनेंट कर्नल प्रसाद पुरोहित, और मामला आतंकवाद, धार्मिक उग्रवाद और जांच प्रक्रिया की खामियों से जुड़ा था।

 

पृष्ठभूमि:

घटना की तिथि: 29 सितंबर 2008 (रमज़ान के महीने में)

स्थान: मालेगांव, महाराष्ट्र – साम्प्रदायिक रूप से संवेदनशील शहर

घटना का स्वरूप: एक एलएमएल फ्रीडम मोटरसाइकिल में छुपा बम एक परिवहन कंपनी के पास फटा।

हानि: 6 लोगों की मौत, 95 घायल, और संपत्ति को भारी नुकसान

प्रारंभिक जांच: नासिक ग्रामीण पुलिस और मुंबई एटीएस द्वारा

मामले का स्थानांतरण: 2011 में NIA को सौंपा गया

आरोपी: कुल 14 लोगों की गिरफ्तारी हुई; 7 के खिलाफ आरोप हटा दिए गए, शेष 7 पर मुकदमा चला:

 

  • प्रज्ञा सिंह ठाकुर
  • ले. कर्नल पुरोहित
  • रमेश उपाध्याय
  • समीर कुलकर्णी
  • अजय राहिरकर
  • सुधाकर द्विवेदी
  • सुधाकर चतुर्वेदी

 

मुख्य आरोप:

आरोपियों ने मुस्लिम बहुल इलाके को निशाना बनाकर साजिश रची थी।

कथित तौर पर प्रज्ञा ठाकुर के नेतृत्व में षड्यंत्र बैठकें हुई थीं।

एटीएस ने दावा किया था कि विस्फोट में इस्तेमाल RDX को पुरोहित ने जम्मू-कश्मीर से प्राप्त किया था।

MCOCA के तहत कबूलनामे लिए गए, जो बाद में हटाए गए।

 

मुकदमे के प्रमुख मुद्दे:

कबूलनामों की वैधता: MCOCA हटने के बाद, उसके तहत लिए गए बयान अमान्य हो गए।

गवाहों का बयान वापस लेना: कई गवाहों, जिनमें सेना के अधिकारी भी थे, ने कहा कि उनके बयान जबरदस्ती लिए गए थे।

फॉरेंसिक खामियाँ: बम मोटरसाइकिल में था या पास रखा गया – कोई वैज्ञानिक प्रमाण नहीं।

 

प्रक्रियागत त्रुटियाँ:

MCOCA और UAPA को मंजूरी देने में उचित कानूनी प्रक्रिया नहीं अपनाई गई।

अदालत के निष्कर्ष:

पर्याप्त साक्ष्य नहीं: आरोपियों के खिलाफ कोई प्रत्यक्ष या परिस्थितिजन्य साक्ष्य नहीं मिला।

प्रत्यक्ष संबंध नहीं:

प्रज्ञा ठाकुर: मोटरसाइकिल की "जागरूक स्वामित्व" की पुष्टि नहीं हुई।

पुरोहित: "अभिनव भारत" में उनकी भागीदारी का दस्तावेज़ी प्रमाण तो था, पर विस्फोट से संबंध नहीं।

विशेषज्ञ गवाही अविश्वसनीय: फॉरेंसिक विशेषज्ञ की गवाही "अनुमान" पर आधारित थी, वैज्ञानिक प्रमाण नहीं।

 

कानूनी आधार:

MCOCA हटाया गया: इसके बाद उसके तहत लिए गए बयान अवैध हो गए।

UAPA में मंजूरी दोषपूर्ण: मंजूरी देते समय जांच अधिकारी से सलाह नहीं ली गई, जिससे "रिवर्स बर्डन ऑफ प्रूफ" जैसे प्रावधान लागू नहीं हो सके।

अदालत ने न्यायिक प्रक्रिया और प्रमाण के मानक को सर्वोपरि माना और कहा कि जब तक ठोस सबूत नहीं हैं, तब तक दोष सिद्ध नहीं किया जा सकता।

 

प्रभाव और प्रतिक्रियाएं:

राजनीतिक प्रभाव:

भाजपा नेताओं ने फैसले को "न्याय की जीत" बताया।

विपक्ष ने आरोप लगाया कि जांच एजेंसियों ने जानबूझकर मामले को कमजोर किया।

पीड़ित परिवारों की प्रतिक्रिया: "न्याय की विफलता" बताते हुए उच्च न्यायालय में अपील की बात कही।

कानूनी विशेषज्ञों की राय: फैसले ने जांच व्यवस्था की गंभीर खामियों को उजागर किया।

 

आगे क्या होगा?

पीड़ितों की अपील: प्रभावित परिवार बॉम्बे हाईकोर्ट में अपील करेंगे।

राज्य सरकार की भूमिका: सरकार पर अपील करने का दबाव बढ़ रहा है, जैसा कि 2006 मुंबई ट्रेन ब्लास्ट के फैसले के बाद हुआ था।

मामले का भविष्य: मामला हाईकोर्ट और संभवतः सुप्रीम कोर्ट तक भी जा सकता है।

 

व्यापक महत्व:

यह मामला दर्शाता है कि:

  • राष्ट्रीय सुरक्षा और न्याय प्रक्रिया के बीच संतुलन जरूरी है।
  • जांच एजेंसियों की निष्पक्षता और स्वतंत्रता सुनिश्चित करनी चाहिए।
  • UAPA, MCOCA जैसे कानूनों के उपयोग में पारदर्शिता और सावधानी होनी चाहिए।
  • यह "हिंदू आतंकवाद" पर राजनीतिक और सामाजिक विमर्श में भी बड़ा प्रभाव डालता है।
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