2006 के मुंबई बम धमाकों के आरोपियों को क्यों रिहा कर दिया गया?

2006 के मुंबई बम धमाकों के आरोपियों को क्यों रिहा कर दिया गया?

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द हिंदू: 31 जुलाई 2025 को प्रकाशित।

 

खबर में क्यों?

21 जुलाई, 2024 को बॉम्बे हाई कोर्ट ने 2006 मुंबई लोकल ट्रेन धमाकों के मामले में सभी 12 आरोपियों को बरी कर दिया, जिससे 2015 में विशेष MCOCA अदालत द्वारा दिए गए दोषसिद्धि फैसले को पलट दिया गया। यह फैसला महत्वपूर्ण है क्योंकि इसमें लगभग दो दशक से जेल में बंद लोगों को रिहा किया गया और एंटी टेररिज़्म स्क्वाड (ATS) की कड़ी न्यायिक आलोचना की गई। साथ ही, यह फैसला आतंकवाद विरोधी कानूनों के दुरुपयोग पर भी सवाल उठाता है।

 

पृष्ठभूमि: 11 जुलाई 2006 को क्या हुआ था?

मुंबई में शाम के व्यस्त समय के दौरान लोकल ट्रेनों में सात समन्वित धमाके हुए।

हताहत:

189 लोगों की मौत

824 घायल

बमों को प्रेशर कुकर में छुपाकर वेस्टर्न रेलवे की प्रथम श्रेणी डिब्बों में रखा गया था।

संभावित उद्देश्य: 2002 के गुजरात दंगों का बदला लेना (ATS के अनुसार)।

 

2015 में MCOCA अदालत का फैसला क्या था?

विशेष MCOCA अदालत ने 13 में से 12 आरोपियों को दोषी ठहराया:

5 को फांसी की सजा

7 को उम्रकैद

1 आरोपी (वाहिद शेख) बरी

आरोपों में षड्यंत्र, हत्या, आतंकवाद, और विस्फोटक पदार्थों का अवैध कब्जा शामिल थे।

फैसला मुख्यतः कबूलनामों, गवाहों की गवाही और बरामद सबूतों पर आधारित था।

 

बॉम्बे हाई कोर्ट ने फैसला क्यों पलटा?

हाई कोर्ट ने गंभीर कानूनी, प्रक्रियात्मक और सबूतों से जुड़ी खामियाँ पाईं:

 

a) बलपूर्वक कबूलनामे

कबूलनामे यातना देकर प्राप्त किए गए (बिजली के झटके, पीटना, नींद से वंचित करना)।

सभी कबूलनामों की भाषा एक जैसी थी, जिससे स्वेच्छा पर संदेह हुआ।

कानूनी सलाह तक पहुँच जैसे वैधानिक अधिकारों का उल्लंघन हुआ।

मेडिकल रिपोर्टों ने यातना के दावे की पुष्टि की।

 

b) अविश्वसनीय चश्मदीद गवाह

गवाह 3–4 महीने बाद सामने आए, जिससे उनकी विश्वसनीयता संदिग्ध हुई।

टैक्सी चालकों और यात्रियों की गवाही सुसंगत नहीं थी।

पहचान परेड (TIPs) अवैध थी: अधिकारी की नियुक्ति पहले ही समाप्त हो चुकी थी।

 

c) MCOCA का अवैध प्रयोग

बिना वैध और सक्षम अधिकारी की पूर्व स्वीकृति के MCOCA लागू किया गया।

स्वीकृति देने वाले अधिकारी ने दस्तावेजों की जांच नहीं की।

यह एक ऐसे कानून का गैरकानूनी प्रयोग था जो सबूतों के मानक को कम करता है और संदेह का लाभ आरोपी को नहीं देता।

 

d) सबूतों से छेड़छाड़ और कुप्रबंधन

भौतिक सबूत (RDX, डेटोनेटर, नक्शे) के सुरक्षित रख-रखाव की चेन नहीं थी।

कई फॉरेंसिक सील टूटे हुए पाए गए, जिससे सबूत अस्वीकार्य हो गए।

 

e) कॉल डेटा रिकॉर्ड (CDRs) का नष्ट किया जाना

CDRs जो कि पाकिस्तान से संपर्कों की पुष्टि/अस्वीकृति के लिए महत्वपूर्ण थे, नष्ट कर दिए गए।

कोर्ट ने इसे जानबूझकर किया गया कार्य माना—जो न्यायसंगत सुनवाई के अधिकार का उल्लंघन है।

 

सुप्रीम कोर्ट ने क्या कहा?

24 जुलाई, 2024 को सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट के फैसले पर आस्थगन (stay) लगाया, लेकिन:

बरी किए गए अभियुक्तों की रिहाई पर रोक नहीं लगाई।

सभी आरोपमुक्त व्यक्तियों को नोटिस जारी किया।

यह स्थगन इसलिए दिया गया क्योंकि फैसला अन्य चल रहे MCOCA मुकदमों को प्रभावित कर सकता है।

राज्य की अपील पर अंतिम सुनवाई अभी बाकी है।

 

कानूनी और राजनीतिक प्रभाव:

कानूनी:

कबूलनामों, यातना, और प्रक्रियात्मक त्रुटियों पर गंभीर सवाल।

न्यायिक प्रक्रिया (Due Process) का महत्व दोहराया गया, भले ही मामला आतंकवाद से जुड़ा हो।

MCOCA के दुरुपयोग पर गंभीर चिंतन।

 

राजनीतिक:

राज्य पुलिस की विश्वसनीयता पर सवाल।

पूर्व सरकार (कांग्रेस-नेतृत्व वाली महाराष्ट्र सरकार) की भूमिका पर प्रश्न।

बरी किए गए आतंकी आरोपियों की रिहाई भविष्य के चुनावों में राजनीतिक विवाद बन सकती है।

 

मानवाधिकार और नागरिक स्वतंत्रताएँ:

इन पुरुषों ने 18–19 साल जेल में बिताए, जबकि 2015 में केवल एक को बरी किया गया था।

हिरासत में यातना, झूठे आरोप, और गलत सजा पर गंभीर चिंता।

जेल सुधार, स्वतंत्र जांच, और जवाबदेही व्यवस्था की आवश्यकता को रेखांकित करता है।

 

व्यापक सवाल:

क्या आतंकवाद विरोधी कानूनों का प्रयोग जिम्मेदारी से हो सकता है, बिना दुरुपयोग के?

क्या पुलिस के सामने दिए गए कबूलनामों को अदालत में स्वीकार किया जाना चाहिए?

हम राष्ट्रीय सुरक्षा और व्यक्तिगत अधिकारों व न्यायिक प्रक्रिया के बीच संतुलन कैसे बनाएँ?

 

निष्कर्ष:

  • 2006 मुंबई धमाकों के मामले में बॉम्बे हाई कोर्ट का फैसला भारतीय आपराधिक न्याय प्रणाली में एक मील का पत्थर है।
  • यह दर्शाता है कि सच्चा न्याय केवल असली अपराधियों को सजा देने से होता है, न कि गलत लोगों को बलि का बकरा बनाने से। 
  • सुप्रीम कोर्ट का अंतिम फैसला भारत में आतंकवाद मामलों की सुनवाई की दिशा तय करेगा।
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