एक साथ चुनाव क्यों अव्यावहारिक और जटिल हैं:

एक साथ चुनाव क्यों अव्यावहारिक और जटिल हैं:

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द हिंदू: 16 दिसंबर 2024 को प्रकाशित: 

 

चर्चा में क्यों है?

‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ का विचार हाल ही में चर्चा का विषय बना हुआ है। लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के लिए एक साथ चुनाव कराने पर विचार हो रहा है। इसके लिए पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में एक समिति बनाई गई है, जो इस विचार की व्यवहारिकता और आवश्यक संविधान संशोधनों की संभावनाओं पर विचार करेगी। इस विषय में संविधान (129वां संशोधन) विधेयक 2024 और केंद्र शासित प्रदेश कानून (संशोधन) विधेयक 2024 को फिलहाल स्थगित कर दिया गया है।

 

समानांतर चुनाव का प्रस्ताव:

उद्देश्य: लोकसभा और सभी राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराए जाएं।

लाभ:

चुनावी खर्च और लॉजिस्टिक संसाधनों में कमी आएगी।

लगातार होने वाले चुनावों के कारण होने वाले व्यवधान से छुटकारा मिलेगा।

राजनीतिक दल "स्थायी चुनाव अभियान मोड" से बाहर निकलकर सुशासन पर ध्यान केंद्रित कर सकेंगे।

पृष्ठभूमि: स्वतंत्रता के बाद शुरू में समानांतर चुनाव कराए जाते थे, लेकिन 1960 के दशक के अंत में यह व्यवस्था टूट गई। मुख्य कारण अनुच्छेद 356 (राष्ट्रपति शासन) और सरकारों का कार्यकाल से पहले गिरना रहा।

 

समानांतर चुनाव के आलोचक:

a) प्रशासनिक और लॉजिस्टिक चुनौतियां:

1.4 अरब की जनसंख्या वाले देश में समानांतर चुनाव कराना बेहद कठिन कार्य है।

राज्यों में भी चुनाव कई चरणों में कराए जाते हैं, क्योंकि सुरक्षा और संसाधनों की सीमाएं होती हैं।

b) संसदीय लोकतंत्र के लिए अव्यवहारिक:

संसदीय लोकतंत्र की मूल विशेषता है कि सरकार को सदन का विश्वास बनाए रखना होता है।

अगर कोई सरकार अपना कार्यकाल पूरा करने से पहले गिरती है, तो नए चुनाव करवाने की आवश्यकता होगी, जिससे समानांतर चुनाव चक्र टूट जाएगा।

c) प्रस्तावित समाधान और उनकी समस्याएं:

राष्ट्रपति शासन: पांच वर्ष पूरे होने तक राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू करना संघवाद और लोकतंत्र को कमजोर करता है।

संक्षिप्त कार्यकाल: नए चुनाव करवाना, परंतु कार्यकाल को अगले चक्र तक सीमित रखना, चुनावी खर्च बचाने के उद्देश्य को विफल कर देगा।

d) विधायकों की खरीद-फरोख्त (हॉर्स-ट्रेडिंग):

सरकार गिरने से बचाने के लिए हॉर्स-ट्रेडिंग बढ़ सकती है।

दसवीं अनुसूची, जो दलबदल को रोकने के लिए बनी है, पहले से ही प्रभावहीन हो चुकी है।

e) संघवाद और लोकतंत्र पर खतरा:

संघवाद:

भारत का लोकतंत्र केवल केंद्र पर आधारित नहीं है, बल्कि राज्यों की भाषाई, सांस्कृतिक, और क्षेत्रीय आकांक्षाओं को भी मान्यता देता है।

समानांतर चुनाव से राज्य स्तरीय मुद्दे राष्ट्रीय मुद्दों में दब सकते हैं।

लोकतंत्र:

भारतीय संविधान में चुनाव जनभागीदारी का एकमात्र माध्यम हैं।

नियमित और बार-बार होने वाले चुनाव जनता को अधिक समय और अवसर देते हैं। समानांतर चुनाव से यह अवसर सीमित हो जाएगा।

 

समानांतर चुनाव की चुनौतियां:

प्रशासनिक जटिलता: इतने बड़े पैमाने पर चुनाव आयोजित करने के लिए भारी संसाधन और सुरक्षा की आवश्यकता होगी।

सरकारों का कार्यकाल गिरना: यदि सरकार गिरती है, तो चुनाव चक्र बाधित हो जाएगा।

संघवाद पर खतरा: राज्य और केंद्र के मुद्दे आपस में घुल-मिल जाएंगे।

शक्ति का केंद्रीकरण: समानांतर चुनाव से राष्ट्रीय पार्टियों को लाभ होगा, जिससे राजनीतिक बहुलतावाद कमजोर पड़ेगा।

दलबदल का खतरा: राजनीतिक अस्थिरता को रोकने के लिए दलबदल बढ़ सकता है।

 

निष्कर्ष:

जहां समानांतर चुनाव के समर्थक इसे लागत-घटाने और सुशासन को बढ़ावा देने का साधन बताते हैं, वहीं इसके जोखिम और चुनौतियां इन लाभों से कहीं अधिक हैं। प्रशासनिक जटिलताएं, संघवाद के लिए खतरा, और लोकतांत्रिक मूल्यों को कमजोर करने की संभावनाएं इसे अव्यवहारिक बनाती हैं। समानांतर चुनाव का विचार महत्वाकांक्षी जरूर है, लेकिन भारत जैसे विविध और लोकतांत्रिक देश के लिए यह असंभव और अव्यवहारिक प्रतीत होता है।

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