यूरोपीय देश अब फ़िलिस्तीन को मान्यता देने की ओर क्यों बढ़ रहे हैं?

यूरोपीय देश अब फ़िलिस्तीन को मान्यता देने की ओर क्यों बढ़ रहे हैं?

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द हिंदू: 12 सितंबर 2025 को प्रकाशित।

 

समाचार में क्यों?

कई यूरोपीय देशों — स्पेन, आयरलैंड और नॉर्वे — ने आधिकारिक रूप से फ़लस्तीन राज्य को मान्यता दे दी है। यह यूरोप की इज़राइल-फ़लस्तीन संघर्ष पर कूटनीतिक नीति में एक बड़ा बदलाव है। यह कदम ग़ाज़ा युद्ध की पृष्ठभूमि में आया है, जब 7 अक्तूबर के हमलों और इज़राइल की सैन्य प्रतिक्रिया ने एक मानवीय संकट पैदा कर दिया। इस मान्यता को दो-राष्ट्र समाधान (Two-State Solution) की संभावना को बचाए रखने का प्रयास माना जा रहा है, जबकि इज़राइली प्रधानमंत्री नेतन्याहू ने इसे खुले तौर पर खारिज कर दिया है। इस कदम ने यूरोप में व्यापक बहस छेड़ दी है। फ्रांस ने संकेत दिया है कि वह "सही समय पर" फ़लस्तीन को मान्यता देने को तैयार है, जबकि जर्मनी और ऑस्ट्रिया अभी संकोच में हैं। यूरोपीय संघ (EU) स्तर पर सर्वसम्मति ज़रूरी है, जो फिलहाल असंभव दिखती है; इसलिए कुछ समान विचारधारा वाले देश मिलकर मान्यता दे रहे हैं ताकि दबाव और गति बनाई जा सके।

 

यूरोपीय देश अब फ़लस्तीन को मान्यता क्यों दे रहे हैं?

ग़ाज़ा युद्ध एक उत्प्रेरक के रूप में – 7 अक्तूबर के हमास हमलों और इज़राइल की बड़े पैमाने पर सैन्य कार्रवाई ने ग़ाज़ा में मानवीय संकट पैदा किया। नागरिकों की पीड़ा और विनाश ने कई यूरोपीय सरकारों के लिए पुरानी स्थिति को अस्वीकार्य बना दिया।

दो-राष्ट्र ढांचे का पतन – नेतन्याहू द्वारा दो-राष्ट्र समाधान को नकारना दशकों की कूटनीतिक सहमति को कमजोर करता है। मान्यता को शांति के लिए "अंतिम इनाम" नहीं बल्कि दो राष्ट्रों की संभावना बनाए रखने का प्रयास माना जा रहा है।

अंतर्राष्ट्रीय कानूनी दबाव – अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय (ICJ) में इज़राइल पर जनसंहार संधि (Genocide Convention) के उल्लंघन का मामला चल रहा है। यूरोप के लिए मान्यता देना अंतर्राष्ट्रीय कानून के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दिखाने का एक तरीका बन गया है।

यूक्रेन युद्ध का असर – यूरोप ने यूक्रेन की संप्रभुता पर मज़बूत रुख अपनाया, लेकिन फ़लस्तीन पर चुप्पी विरोधाभास दिखाती थी। अब "पाखंड" से बचने के लिए यूरोपीय सरकारें अपनी विदेश नीति को और सुसंगत बना रही हैं।

घरेलू राजनीतिक दबाव – जनता की राय, छात्र आंदोलनों, मानवाधिकार संगठनों और प्रगतिशील राजनीतिक आधारों से कार्रवाई की मांग उठ रही है। यदि नेता निष्क्रिय रहते हैं तो उन्हें चुनावी नुकसान उठाना पड़ सकता है।

 

कुछ देश तेज़ी से क्यों बढ़ रहे हैं और कुछ धीमे क्यों?

स्पेन, आयरलैंड, नॉर्वे – फ़लस्तीन के प्रति लंबे समय से सहानुभूति, वामपंथी सरकारें और सामाजिक-लोकतांत्रिक अंतरराष्ट्रीयता की परंपरा।

नॉर्वे – 1993 के ओस्लो समझौतों का मेज़बान होने के नाते अब मान्यता देना इस बात का संकेत है कि बातचीत का रास्ता असफल हो चुका है।

जर्मनी, ऑस्ट्रिया – होलोकॉस्ट की ऐतिहासिक ज़िम्मेदारी और इज़राइल के प्रति अटूट प्रतिबद्धता के कारण मान्यता देने में धीमापन।

पूर्वी यूरोप (पोलैंड, हंगरी) – सोवियत दौर में फ़लस्तीन को मान्यता दी थी, लेकिन आज अमेरिका के साथ निकटता और ट्रांसअटलांटिक एकता को प्राथमिकता देते हैं।

 

क्या यूरोपीय संघ (EU) एकीकृत प्रतिक्रिया दे सकता है?

EU की सीमाएँ – सामान्य विदेशी और सुरक्षा नीति (CFSP) में सर्वसम्मति की आवश्यकता होती है, जो विभाजन के कारण असंभव है। इसलिए मान्यता का निर्णय व्यक्तिगत देशों पर छोड़ा गया है।

"समान विचारधारा वाले समूह" की रणनीति – स्पेन, आयरलैंड और नॉर्वे ने जानबूझकर साथ मिलकर यह कदम उठाया ताकि इसका प्रभाव बढ़े। इससे EU-व्यापी सहमति न होने पर भी अन्य देशों को कूटनीतिक कवर और राजनीतिक गति मिलती है।

व्यावहारिक EU बदलाव – आधिकारिक EU स्तर पर जल्द कोई साझा रुख नहीं बनेगा, लेकिन सदस्य देशों के समन्वित फैसलों से यूरोप की सामूहिक स्थिति बदल रही है। प्रतीकात्मक रूप से, यूरोप अब निष्क्रियता से हटकर मूल्य-आधारित कूटनीति की ओर बढ़ रहा है।

 

समग्र तस्वीर:

फ़लस्तीन की मान्यता संघर्ष को हल नहीं करती, लेकिन यह नैतिक और राजनीतिक रुख में बदलाव का संकेत है। यह दिखाता है कि यूरोप वैश्विक मंच पर अपनी संगति, विश्वसनीयता और मूल्यों को स्थापित करना चाहता है। असल में यह कदम भूराजनीतिक तात्कालिकता, नैतिक ज़िम्मेदारी और घरेलू राजनीतिक दबाव के संगम को दर्शाता है।

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