द हिंदू: 3 जून 2025 को प्रकाशित:
समाचार में क्यों?
14 मई 2025 को फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने यह कहा कि फ्रांस अन्य यूरोपीय देशों में अपने परमाणु हथियार तैनात करने पर चर्चा के लिए खुला है। यह बयान रूस-यूक्रेन युद्ध से उत्पन्न सुरक्षा चिंताओं के बीच आया है।
पृष्ठभूमि:
ब्रेक्सिट के बाद, फ्रांस ही एकमात्र परमाणु शक्ति वाला ईयू देश बचा है।
शीत युद्ध के समय से अमेरिका ने नाटो देशों में परमाणु साझेदारी की व्यवस्था की हुई है।
2023 में रूस द्वारा बेलारूस में परमाणु हथियारों की तैनाती से तनाव बढ़ा।
पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की नाटो सुरक्षा गारंटी पर सशर्त नीति के चलते यूरोपीय देशों में अमेरिका पर निर्भरता को लेकर चिंता बढ़ी।
मुख्य मुद्दे:
रणनीतिक स्वायत्तता: यह प्रस्ताव यूरोप की अपनी सुरक्षा क्षमता बढ़ाने के मैक्रों के एजेंडे का हिस्सा है।
निवारण बनाम उत्तेजना: परमाणु हथियारों की तैनाती रूस को रोक सकती है, लेकिन इससे तनाव और जवाबी कार्रवाई भी हो सकती है।
एनपीटी (NPT) वैधता: इस कदम की परमाणु अप्रसार संधि (1968) के तहत वैधता पर सवाल हैं।
लॉजिस्टिक चुनौतियाँ: फ्रांस के पास लगभग 290 परमाणु वारहेड हैं, जो व्यापक तैनाती के लिए कम हो सकते हैं।
परमाणु साझेदारी मॉडल क्या है?
नाटो में, अमेरिका के परमाणु हथियार कुछ गैर-परमाणु सदस्य देशों में तैनात हैं।
लेकिन अमेरिका नियंत्रण और स्वामित्व अपने पास रखता है।
फ्रांस को यदि ऐसा मॉडल अपनाना है, तो उसे फ्रांसीसी विमान (जैसे राफेल) और नियंत्रण प्रणाली विदेशों में तैनात करनी होगी।
यह तकनीकी और रणनीतिक दृष्टि से चुनौतीपूर्ण होगा।
कानूनी और नैतिक पहलू:
NPT का अनुच्छेद-1 परमाणु हस्तांतरण पर रोक लगाता है।
नाटो का तर्क है कि जब तक युद्ध नहीं होता, तब तक नियंत्रण ट्रांसफर नहीं होता — लेकिन कई विशेषज्ञ इस दावे को चुनौती देते हैं।
फ्रांस को भी यदि यह मॉडल अपनाना है, तो वैसे ही विवादों का सामना करना पड़ेगा।
भूराजनीतिक महत्व:
यूरोप को अमेरिका पर निर्भरता से हटाने की दिशा में कदम।
रूस जैसे विरोधियों को यह संकेत कि यूरोप स्वयं सुरक्षा नीति बना सकता है।
EU की साझा रक्षा रणनीति की संभावनाएं बढ़ेंगी — जैसे साझा कमांड सिस्टम।
निष्कर्ष:
राष्ट्रपति मैक्रों का यह प्रस्ताव फ्रांस की पारंपरिक नीति में बदलाव का संकेत है। यह न केवल बढ़ते क्षेत्रीय खतरों का जवाब है बल्कि बदलते ट्रांस-अटलांटिक संबंधों की भी प्रतिक्रिया है। लेकिन यह कदम कानूनी, रणनीतिक और नैतिक चुनौतियाँ भी लेकर आता है, जिन्हें यूरोप को संतुलित तरीके से सुलझाना होगा।