मतदान के अधिकार की कानूनी स्थिति क्या है?

मतदान के अधिकार की कानूनी स्थिति क्या है?

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द हिंदू: 22 जुलाई 2025 को प्रकाशित:

 

समाचार में क्यों है?

भारत के सुप्रीम कोर्ट में वर्तमान में बिहार में मतदाता सूचियों की विशेष गहन पुनरीक्षण (Special Intensive Revision - SIR) के खिलाफ दायर याचिकाओं पर सुनवाई हो रही है।

इस संदर्भ में एक प्रमुख कानूनी प्रश्न उभरा है कि भारत में "मतदान का अधिकार" की वैधानिक स्थिति क्या है — क्या यह एक वैधानिक (statutory) अधिकार है, संवैधानिक (constitutional) अधिकार है, या मौलिक (fundamental) अधिकार है?

 

पृष्ठभूमि:

भारत में मतदान का अधिकार लोकतंत्र का एक मौलिक हिस्सा माना जाता है।

हालाँकि, भारतीय न्यायालयों द्वारा वर्षों में इस अधिकार की भिन्न-भिन्न व्याख्याएँ की गई हैं।

वर्तमान बहस मतदाता सूची में अनियमितताओं या चिंताओं के कारण फिर से उभरी है, जो नागरिकों के मतदान अधिकार को प्रभावित करती हैं।

 

मतदान के अधिकार की वैधानिक स्थिति क्या है?

सुप्रीम कोर्ट के अधिकांश निर्णयों के अनुसार, भारत में मतदान का अधिकार एक वैधानिक (statutory) अधिकार है, मौलिक या संवैधानिक अधिकार नहीं।

यह मुख्य रूप से जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 (Representation of the People Act, 1951) की धारा 62 द्वारा नियंत्रित होता है।

हालाँकि यह संविधान के अनुच्छेद 326 से उत्पन्न होता है, लेकिन इसका क्रियान्वयन संविधान नहीं बल्कि कानून द्वारा किया जाता है।

 

संवैधानिक अधिकार और वैधानिक अधिकार में अंतर क्या है?

संवैधानिक अधिकार वह अधिकार होता है जो सीधे तौर पर भारतीय संविधान द्वारा दिया गया होता है।

ये अधिकार सभी सरकारी प्राधिकरणों पर बाध्यकारी होते हैं और इन्हें संविधान में संशोधन किए बिना बदला या हटाया नहीं जा सकता।

उदाहरणस्वरूप: अनुच्छेद 300A के तहत संपत्ति का अधिकार और भाग XIII के तहत व्यापार और वाणिज्य की स्वतंत्रता।

इन अधिकारों को अनुच्छेद 226 के तहत हाई कोर्ट में लागू किया जा सकता है।

वहीं, वैधानिक अधिकार वे होते हैं जो संसद या राज्य विधानमंडल द्वारा बनाए गए किसी साधारण कानून से उत्पन्न होते हैं।

ये अधिकार संविधान से सीधे नहीं आते, बल्कि किसी विशेष अधिनियम से प्रदान किए जाते हैं।

उदाहरण: मनरेगा (MGNREGA) के तहत काम करने का अधिकार, या राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम के तहत राशन का अधिकार।

इन अधिकारों को साधारण विधायी प्रक्रिया से बदला या निरस्त किया जा सकता है।

इस प्रकार, दोनों में मुख्य अंतर उत्पत्ति के स्रोत, संरक्षण के स्तर, और प्रवर्तन के तरीके में होता है —

संवैधानिक अधिकार अधिक मजबूत और बदलने में कठिन होते हैं, जबकि वैधानिक अधिकारों को संशोधित करना अपेक्षाकृत आसान होता है।

 

जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 62 क्या कहती है?

यह धारा हर उस व्यक्ति को मतदान का अधिकार देती है जिसका नाम मतदाता सूची में दर्ज है।

हालाँकि, यह अधिकार उन व्यक्तियों को प्रभावी नहीं होगा जो:

  • अधिनियम के तहत अपात्र घोषित हैं
  • जेल में बंद हैं
  • या किसी अन्य मान्य कानून के तहत अपात्र हैं।

 

अदालतों ने मतदान के अधिकार पर क्या कहा है?

प्रमुख निर्णय:

  • एन.पी. पोंनुस्वामी (1952) – मतदान का अधिकार वैधानिक अधिकार है।
  • ज्योति बसु (1982) – पुनः पुष्टि की गई कि यह मौलिक या सामान्य कानून अधिकार नहीं है।
  • PUCL मामला (2003) – कहा कि यदि मतदान का अधिकार मौलिक नहीं है, तो कम से कम यह एक संवैधानिक अधिकार है।
  • कुलदीप नायर (2006) – पुनः कहा कि यह वैधानिक अधिकार ही है।
  • राज बाला (2015) – PUCL के आधार पर इसे संवैधानिक अधिकार माना।
  • अनूप बरनवाल (2023) – बहुमत ने फिर से माना कि यह केवल एक वैधानिक अधिकार है।
  • वर्तमान स्थिति: भारत में मतदान का अधिकार एक वैधानिक अधिकार है (सुप्रीम कोर्ट की नवीनतम स्थिति के अनुसार)।

 

अनूप बरनवाल मामले में न्यायमूर्ति अजय रस्तोगी ने असहमति में क्या कहा?

न्यायमूर्ति अजय रस्तोगी ने बहुमत के निर्णय से आंशिक रूप से असहमति व्यक्त की।

उन्होंने कहा कि:

मतदान नागरिक की अभिव्यक्ति का एक रूप है, जो अनुच्छेद 19(1)(a) (अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता) के अंतर्गत आता है।

यह मुफ्त और निष्पक्ष चुनावों के लिए अनिवार्य है, जो कि संविधान की मूल संरचना (Basic Structure) का हिस्सा है।

भले ही इसे मौलिक अधिकार न माना जाए, यह अनुच्छेद 326 से उत्पन्न होता है और कम से कम एक संवैधानिक अधिकार माना जाना चाहिए।

उन्होंने सुझाव दिया कि सुप्रीम कोर्ट को मतदान के अधिकार को संवैधानिक अधिकार का दर्जा देने पर विचार करना चाहिए।

 

संविधान का अनुच्छेद 326 क्या कहता है?

यह अनुच्छेद लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनावों में सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार की गारंटी देता है।

मतदान के लिए शर्तें:

  • भारत का नागरिक होना चाहिए
  • कम से कम 18 वर्ष की आयु होनी चाहिए
  • किसी भी कानून के तहत अपात्र नहीं होना चाहिए

 

वैधानिक बनाम संवैधानिक स्थिति के प्रभाव

वैधानिक अधिकार:

इन्हें साधारण कानून द्वारा बदला या सीमित किया जा सकता है।

ये संवैधानिक या मौलिक अधिकारों की तुलना में कम सुरक्षित होते हैं।

अगर मतदान का अधिकार संवैधानिक बना दिया जाए:

  • इस पर किसी भी प्रतिबंध के लिए मजबूत न्यायिक आधार देना पड़ेगा।
  • नागरिकों को संवैधानिक उपचारों तक पहुंचने का अधिक अधिकार मिलेगा।

 

निष्कर्ष:

भारत में मतदान का अधिकार, यद्यपि लोकतंत्र का मूल आधार माना जाता है, वर्तमान में केवल एक वैधानिक अधिकार है, न कि मौलिक या संवैधानिक अधिकार।

हालाँकि, न्यायमूर्ति अजय रस्तोगी जैसे न्यायविदों की आवाजें यह संकेत देती हैं कि यह अधिकार संविधान की मूल संरचना में निहित है, और भविष्य में इसकी स्थिति को संवैधानिक दर्जा दिया जा सकता है।

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