द हिंदू: 24 अक्टूबर 2025 को प्रकाशित।
समाचार में क्यों:
स्वीडन की 1990 के दशक की आर्थिक मंदी के बाद अपनाई गई सख्त वित्तीय नीतियाँ और सुधार आज फिर से चर्चा में हैं, क्योंकि फ्रांस जैसे यूरोपीय देश, जो इस समय बढ़ते बजट घाटे और कर्ज़ से जूझ रहे हैं, उनसे सीख सकते हैं कि आर्थिक अनुशासन कैसे दीर्घकालिक स्थिरता ला सकता है।
पृष्ठभूमि:
1990 के दशक की शुरुआत में स्वीडन को गंभीर वित्तीय, बैंकिंग और ऋण संकट का सामना करना पड़ा।
सार्वजनिक कर्ज़ GDP के 44% से बढ़कर 80% तक पहुँच गया और बजट घाटा 12% तक पहुँच गया।
मुद्रा पर विश्वास बहाल करने के लिए स्वीडन के केंद्रीय बैंक (Riksbank) ने ब्याज दरें 500% तक बढ़ा दीं।
तत्कालीन वित्त मंत्री गोरान पर्सन (Göran Persson) ने कठोर किफ़ायत (austerity) नीति अपनाई — सामाजिक कल्याण, शिक्षा और रक्षा में भारी कटौती की।
सरकार ने खर्च की सीमा तय की, बजट अधिशेष का लक्ष्य रखा और पेंशन प्रणाली में सुधार किए, जिससे देश धीरे-धीरे आर्थिक रूप से स्थिर हुआ।
मुख्य मुद्दे:
फ्रांस की वित्तीय चुनौती:
फ्रांस बढ़ते कर्ज़ और राजकोषीय घाटे से जूझ रहा है।
इसकी बड़ी वजह है सामाजिक कल्याण, पेंशन और स्वास्थ्य सेवाओं पर अत्यधिक खर्च।
राजनीतिक ध्रुवीकरण और जनता के विरोध के कारण सुधार लागू करना कठिन है।
स्वीडन के संरचनात्मक सुधार:
सरकार ने खर्च की अधिकतम सीमा और आर्थिक चक्र के अनुसार अधिशेष लक्ष्य तय किए।
पेंशन प्रणाली को बाजार से जोड़ दिया गया ताकि भुगतान बाजार रिटर्न और जीवन प्रत्याशा पर आधारित हो।
सरकार, विपक्ष, यूनियनों और नागरिकों के बीच सहमति आधारित नीति निर्माण को प्राथमिकता दी गई।
त्याग और परिणाम:
अल्पकाल में सरकारी नौकरियों में भारी कटौती और बुनियादी ढांचे में कम निवेश हुआ।
लेकिन दीर्घकाल में इससे देश को मजबूत वित्तीय स्थिति और लचीलापन प्राप्त हुआ।
आर्थिक महत्व:
आज स्वीडन का सार्वजनिक कर्ज़ GDP का मात्र 30% से थोड़ा अधिक है — जो यूरोप में सबसे कम में से एक है।
इस कारण वह एक साथ रक्षा पर (GDP का 3.5%), न्यूक्लियर ऊर्जा, यूक्रेन सहायता और करों में कटौती कर पा रहा है, वह भी बिना अधिक कर्ज़ लिए।
यह दिखाता है कि बुरे समय में अनुशासन अपनाने से अच्छे समय में स्वतंत्रता मिलती है।
वैश्विक संदर्भ:
स्वीडन की सुधार यात्रा 1990 के दशक की तेज़ी से बढ़ती वैश्विक अर्थव्यवस्था के दौर में हुई, जब IT बूम और वैश्वीकरण बढ़ रहा था।
वर्तमान में वैश्विक अर्थव्यवस्था संरक्षणवादी (protectionist) रुख अपना रही है, जिससे इस मॉडल को दोहराना कठिन है।
यूरोप में अति-दक्षिणपंथी दलों का उभार भी सहमति आधारित नीतियों को मुश्किल बना रहा है।
फ्रांस और यूरोप के लिए सीख:
कठिन सुधार संकट की स्थिति में ही संभव होते हैं — जब हालात अत्यंत खराब हों, तभी राजनीतिक इच्छाशक्ति बनती है।
राजनीतिक व सामाजिक सहमति (Consensus) दीर्घकालिक सफलता की कुंजी है।
संरचनात्मक सुधार (Structural Reforms) — जैसे पेंशन सुधार और खर्च सीमा — स्थिरता लाते हैं।
वित्तीय अनुशासन (Fiscal Discipline) से ही आर्थिक स्वतंत्रता मिलती है — “जो कर्ज़ में हैं, वे स्वतंत्र नहीं हैं।”
चुनौतियाँ:
फ्रांस को अब तक ऐसा बड़ा संकट नहीं झेलना पड़ा जिसने उसे सुधार के लिए बाध्य किया हो।
फिलहाल उसका उधार ब्याज दर (3.35%) प्रबंधनीय है, जिससे सुधार की तात्कालिक आवश्यकता महसूस नहीं होती।
राजनीतिक विभाजन और जन विरोध सुधारों को लागू करने में बड़ी बाधा हैं।
निष्कर्ष / आगे की राह:
स्वीडन का 1990 के दशक का अनुभव यह साबित करता है कि आर्थिक स्थिरता कठोर अनुशासन और दूरदर्शिता से आती है।
हालाँकि, आज के विभाजित राजनीतिक माहौल में फ्रांस या अन्य यूरोपीय देशों के लिए इसे दोहराना आसान नहीं होगा।
आख़िरकार, स्वीडन का उदाहरण यह सिखाता है कि "वित्तीय संयम ही आर्थिक स्वतंत्रता का आधार है" — और दीर्घकालिक समृद्धि का रास्ता कठिन किंतु आवश्यक सुधारों से होकर जाता है।