SC की एडवाइज़री ओपिनियन का क्या मतलब है?

SC की एडवाइज़री ओपिनियन का क्या मतलब है?

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द हिंदू: 25 नवंबर 2025 को पब्लिश हुआ।

 

क्यों चर्चा में है?

भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने अनुच्छेद 143 के तहत एक राष्ट्रपति संदर्भ पर अपनी सलाह जारी की है। यह राय अप्रैल 2025 के निर्णय को लगभग नकारती है, जिसमें राज्यपालों के पास लंबित बिलों के लिए समय सीमा और ‘मानी हुई स्वीकृति’ (Deemed Assent) प्रदान की गई थी। नए मत ने राज्यपालों की शक्तियों और न्यायपालिका की सीमाओं को स्पष्ट किया है।

 

पृष्ठभूमि: राष्ट्रपति संदर्भ कैसे आया?

स्टेट ऑफ़ तमिलनाडु बनाम तमिलनाडु के राज्यपाल (अप्रैल 2025) में सुप्रीम कोर्ट ने:

राज्यपाल और राष्ट्रपति को 3 महीने के भीतर बिलों पर निर्णय करने का निर्देश दिया।

इन निर्णयों को न्यायिक समीक्षा योग्य माना।

अनुच्छेद 142 के तहत लंबित बिलों को ‘मानी हुई स्वीकृति’ दे दी।

इसके बाद यह सवाल उठे कि न्यायपालिका:

क्या संविधान में न होने पर भी समय सीमा तय कर सकती है?

क्या बिल के कानून बनने से पहले राज्यपाल/राष्ट्रपति के कार्यों की समीक्षा कर सकती है?

क्या अनुच्छेद 142 का प्रयोग राष्ट्रपति/राज्यपाल की शक्तियाँ बदलने के लिए किया जा सकता है?

इसीलिए 14 प्रश्न राष्ट्रपति द्वारा सुप्रीम कोर्ट को भेजे गए।

 

सुप्रीम कोर्ट की सलाह: मुख्य बिंदु

अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल के तीन विकल्प

(a) स्वीकृति देना

(b) टिप्पणी सहित बिल लौटाना

(c) बिल राष्ट्रपति के पास भेजना

 

राज्यपाल को विवेकाधिकार:

इन विकल्पों के चयन में राज्यपाल मंत्रिपरिषद की सलाह से बाध्य नहीं हैं।

 

सीमित न्यायिक समीक्षा:

बिल कानून बनने से पहले निर्णयों की समीक्षा नहीं होगी।

लेकिन बहुत लंबी और अस्पष्टीकृत देरी हो तो कोर्ट सीमित निर्देश (Mandamus) जारी कर सकता है।

 

कोर्ट समय सीमा तय नहीं कर सकती:

संविधान ने समय सीमा नहीं दी, इसलिए अदालत भी नहीं दे सकती।

 

‘मानी हुई स्वीकृति’ असंवैधानिक:

अनुच्छेद 142 से राज्यपाल/राष्ट्रपति की भूमिका नहीं बदली जा सकती।

 

मुख्य विवाद:

संघवाद को खतरा

कोर्ट का यह मत पूर्व फैसलों (शमशेर सिंह 1974, नाबम रेबिया 2016) से विपरीत है, जिनमें राज्यपाल को मंत्रिपरिषद की सलाह मानना आवश्यक बताया गया था। इससे राज्यपालों को राजनीतिक कारणों से बिल रोकने की शक्ति बढ़ सकती है।

 

समय सीमा न होना समस्यापूर्ण:

सर्कारिया (1987) और पंची आयोग (2010) ने समय सीमा देने की सिफारिश की थी (जैसे 6 महीने)। ऐसी सीमा न होने से राज्यपाल बिल अनिश्चित समय तक रोक सकते हैं।

 

प्रगतिशील व्याख्या का विरोध:

अप्रैल 2025 का निर्णय जिम्मेदारी और संघीय संतुलन को मजबूत करता था, जिसे अब नकार दिया गया।

 

क्या राज्यपाल को मंत्रिपरिषद की सलाह माननी चाहिए?

हाँ। राज्यपाल सांविधानिक मुखिया हैं, समानांतर शक्ति केंद्र नहीं। संघवाद संविधान की मूल संरचना है, इसलिए राज्यपाल की भूमिका राजनीतिक बाधा नहीं बननी चाहिए।

 

आगे का रास्ता:

  • राज्यपाल पद के राजनीतिकरण पर रोक लगे।
  • उचित समय सीमा कानून या संवैधानिक संशोधन द्वारा तय की जाए।
  • राज्यपालों को संवैधानिक नैतिकता और त्वरित निर्णय का पालन करना चाहिए।
  • सहकारी संघवाद को मजबूत करना आवश्यक है।
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