द हिंदू: 8 दिसंबर 2025 को पब्लिश हुआ।
चर्चा में क्यों?
25 सितंबर को सांख्यिकी एवं कार्यक्रम क्रियान्वयन मंत्रालय (MoSPI) ने भारतीय सांख्यिकी संस्थान विधेयक, 2025 का मसौदा जारी किया।
यह विधेयक ISI अधिनियम, 1959 को समाप्त कर ISI को “पंजीकृत सोसाइटी से वैधानिक कॉर्पोरेट निकाय” में बदलने का प्रस्ताव करता है।
इस कदम के खिलाफ छात्रों, शिक्षकों और अकादमिक समुदाय ने ज़ोरदार विरोध शुरू कर दिया है।
विरोध करने वालों का आरोप: यह कदम शैक्षणिक स्वायत्तता खत्म करने की कोशिश है।
पृष्ठभूमि:
ISI की स्थापना 1931 में प्रसिद्ध सांख्यिकीविद् प्रो. पी.सी. महालनोबिस ने की थी।
इसे 1959 में संसद ने राष्ट्रीय महत्व की संस्था (Institution of National Importance) का दर्जा दिया।
वर्तमान में ISI एक पंजीकृत सोसाइटी है, जिसका अपना
ज्ञापन (MoA),
उपनियम,
और एक शैक्षणिक प्रतिनिधित्व वाली परिषद है।
ISI देश का शीर्ष शोध संस्थान है, जिसके 6 केंद्र और लगभग 1,200 छात्र हैं।
मसौदा विधेयक, 2025 में क्या प्रस्ताव है?
ISI अधिनियम, 1959 को रद्द किया जाएगा।
ISI को सोसाइटी की जगह वैधानिक निकाय (Statutory Body Corporate) बनाया जाएगा।
एक नई बोर्ड ऑफ गवर्नर्स (BoG) बनेगी, जिसमें सरकारी प्रतिनिधि बहुसंख्यक होंगे।
राजस्व (Revenue) बढ़ाने के लिए नई शक्तियाँ:
फीस बढ़ाना,
कंसल्टेंसी,
स्पॉन्सर्ड रिसर्च,
दान और अनुदान।
नियुक्ति, वित्तीय नियंत्रण और प्रशासन पर केंद्र सरकार का अधिक अधिकार होगा।
छात्र और शिक्षाविद् क्यों विरोध कर रहे हैं?
(A) शैक्षणिक स्वायत्तता पर खतरा
वर्तमान परिषद में शिक्षकों व कर्मचारियों का प्रतिनिधित्व है।
नए विधेयक में यह प्रतिनिधित्व पूरी तरह समाप्त हो रहा है।
अब निर्णय सरकारी नियुक्त बोर्ड लेगा।
आरोप: इससे शोध और अकादमिक स्वतंत्रता कमजोर होगी।
(B) सोसाइटी का समाप्त होना — कानूनी / संघीय मुद्दा
ISI मूल रूप से प. बंगाल सोसाइटी पंजीकरण अधिनियम के तहत पंजीकृत है।
विरोधियों का कहना है कि इसे खत्म करना राज्य के अधिकार क्षेत्र पर अतिक्रमण है।
इसे सहकारी संघवाद के खिलाफ बताया जा रहा है।
(C) राजनीतिक हस्तक्षेप की आशंका
सभी प्रमुख नियुक्तियाँ (डायरेक्टर, फैकल्टी, प्रशासनिक पद) अब केंद्र सरकार द्वारा नियंत्रित BoG करेगी।
इससे राजनीतिक दबाव बढ़ने की संभावना बताई जा रही है।
(D) कॉर्पोरेट मॉडल की ओर झुकाव
विधेयक का धारा 29: ISI को स्वयं राजस्व जुटाने पर जोर देती है।
विरोधियों की चिंता:
बेसिक रिसर्च (Fundamental Research) को फंड मिलना कठिन हो सकता है,
क्योंकि यह तुरंत लाभ नहीं देता।
इससे ISI का चरित्र कॉर्पोरेट संस्थान जैसा हो सकता है।
(E) बिना स्पष्ट कारण के 1959 का अधिनियम हटाना
1,500 अकादमिक विशेषज्ञों ने पत्र लिखकर कहा कि सरकार ने कोई पारदर्शी कारण नहीं दिया है।
यह कदम सोसाइटी और सरकार के बीच हुए मूल समझौते की भावना का उल्लंघन है।
मुख्य चिंताएँ:
स्वायत्तता में कमी
सरकारी व राजनीतिक नियंत्रण में वृद्धि
अकादमिक प्रतिनिधित्व समाप्त
कॉर्पोरेट मॉडल से शुल्क वृद्धि व बाज़ार आधारित शोध का दबाव
संघीय ढांचे का उल्लंघन
दीर्घकालिक अनुसंधान (Basic Research) को खतरा
सरकार का पक्ष:
सरकार के प्रमुख तर्क:
ISI को वैश्विक स्तर पर प्रतिस्पर्धी संस्थान बनाया जाएगा।
यह सुधार ISI की शताब्दी (2031) से पहले उसकी क्षमता बढ़ाने के लिए हैं।
चार विशेषज्ञ समितियों, विशेषकर मसहलकर समिति (2020) ने बड़े ढांचागत सुधार सुझाए थे।
अधिनियम आधुनिक प्रशासन, अधिक पारदर्शिता और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मजबूती लाएगा।
सरकार का दावा: स्वायत्तता नहीं छीनी जा रही, बल्कि संस्थान को मजबूत बनाया जा रहा है।
राजस्व पर प्रभाव:
वर्तमान व्यवस्था:
सरकारी अनुदान पर निर्भरता।
फीस कम और सब्सिडाइज्ड।
लक्ष्य — बुनियादी शोध, न कि बाजार आधारित परियोजनाएँ।
प्रस्तावित विधेयक के तहत:
फीस, कंसल्टेंसी, स्पॉन्सर्ड रिसर्च, दान से धन जुटाने की अनुमति।
चिंता:
फीस में बढ़ोतरी,
धन कमाने दबाव,
मूल विज्ञान, सांख्यिकी, गणित के दीर्घकालिक शोध की उपेक्षा।
प्रमुख हितधारक:
ISI के छात्र
शिक्षक, पूर्व शिक्षक, शोधकर्ता
MoSPI और केंद्र सरकार
विपक्षी राजनीतिक दल
भारतीय सांख्यिकी समुदाय
समीक्षा समितियाँ (जैसे मसहलकर समिति)
राजनीतिक आयाम:
तृणमूल कांग्रेस, CPI(M) और सांसद डी. रविकुमार ने इसका विरोध किया है।
विपक्ष का आरोप: यह “केंद्रीकरण” और “संस्थानों पर नियंत्रण” का एक और कदम है।
आगे क्या?:
विरोध और तेज होने की संभावना।
विपक्ष संसद में इस बिल को अवरोधित करने की कोशिश करेगा।
सरकार सार्वजनिक परामर्श कर सकती है, पर बदलाव का स्तर स्पष्ट नहीं।
संभव है: