कल्याण पर निर्भरता या शासन सुधार?

कल्याण पर निर्भरता या शासन सुधार?

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द हिंदू: 3 नवंबर 2025 को प्रकाशित।

 

समाचार में क्यों?

बिहार एक महत्वपूर्ण विधानसभा चुनाव की ओर बढ़ रहा है, जो यह तय करेगा कि राज्य कल्याण योजनाओं पर निर्भर राजनीति को जारी रखेगा या सुशासन आधारित सुधारों की ओर कदम बढ़ाएगा। भारत के सबसे अधिक बहुआयामी गरीबी दर और सबसे कम प्रति व्यक्ति आय वाले राज्य के रूप में, यह चुनाव बिहार के सामाजिक और राजनीतिक भविष्य के लिए एक निर्णायक मोड़ माना जा रहा है।

 

पृष्ठभूमि:

बिहार की राजनीति लंबे समय से जातिगत निष्ठाओं, गठबंधन समीकरणों और आर्थिक पिछड़ेपन के इर्द-गिर्द घूमती रही है। वर्ष 2005 से अब तक सत्ता राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) और महागठबंधन (MGB) के बीच बार-बार बदली है, अक्सर बहुत ही कम अंतर से — जैसे 2020 में NDA की 125-110 सीटों की जीत।

हालाँकि राज्य में सड़कों, बिजली, पुलों और शहरी परियोजनाओं जैसी दृश्य विकास योजनाओं में प्रगति हुई है, परंतु रोजगार, औद्योगिक विकास और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा जैसे क्षेत्रों में संरचनात्मक सुधार अभी भी अधूरे हैं। बिहार का सामाजिक-आर्थिक विभाजन अब उसकी राजनीतिक सोच का प्रतिबिंब बन गया है — एक ओर दिखावटी विकास और दूसरी ओर वास्तविक परिवर्तन की आवश्यकता।

 

मुख्य मुद्दा:

इस चुनाव का मूल प्रश्न यह है कि क्या बिहार लोकलुभावन कल्याण आधारित राजनीति को जारी रखेगा, जिसमें नकद हस्तांतरण और मुफ्त योजनाओं के ज़रिए गरीबों की निष्ठा बनाए रखी जाती है, या फिर प्रदर्शन आधारित शासन की दिशा में कदम बढ़ाएगा जहाँ जवाबदेही, रोजगार और सुशासन प्रमुख होंगे। यही टकराव संरक्षणवादी राजनीति और नीतिगत सुशासन के बीच चुनाव को निर्णायक बनाता है।

 

प्रमुख कारक और उभरते रुझान:

बिहार की राजनीति में एक बड़ा बदलाव महिला मतदाताओं के उभार के रूप में देखा जा रहा है। आंकड़ों के अनुसार, महिलाओं ने लगातार पुरुषों से अधिक मतदान किया है — 2020 में महिलाओं का मतदान प्रतिशत 59.6% जबकि पुरुषों का 54.7% रहा। साइकिल योजना और उज्ज्वला योजना जैसी योजनाओं ने महिलाओं को सामाजिक और आर्थिक रूप से सशक्त बनाया है, जिससे वे अब स्वतंत्र रूप से वोट डालती हैं। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की जद(यू) ने महिला सशक्तिकरण आधारित शासन की छवि बनाई है, जिससे उनका महिला मतदाताओं पर प्रभाव बढ़ा है।

 

इसके साथ ही, युवा मतदाताओं का महत्व भी बढ़ गया है। पटना, गया, और मुजफ्फरपुर जैसे शहरी जिलों में युवा अब रोजगार, शिक्षा, और भ्रष्टाचार-मुक्त शासन जैसे मुद्दों पर ध्यान दे रहे हैं, न कि जाति या समुदाय पर। इससे चुनावी समीकरण अधिक प्रतिस्पर्धी और अनिश्चित हो गए हैं।

 

एक नया राजनीतिक मोर्चा प्रशांत किशोर का “जन सुराज आंदोलन” भी उभर रहा है। यह आंदोलन शिक्षा, स्वास्थ्य और भ्रष्टाचार-निरोध को प्रमुख मुद्दा बनाकर पारंपरिक जातिगत राजनीति को चुनौती दे रहा है। यह आंदोलन बेरोजगारी और पलायन से नाराज़ युवाओं को आकर्षित कर रहा है और “गवर्नेंस-फर्स्ट” यानी सुशासन आधारित राजनीति को बढ़ावा दे रहा है।

 

विकास बनाम कल्याण की बहस:

बिहार की राजनीति आज दो विचारधाराओं के बीच बँटी हुई है।

एक ओर NDA का मॉडल है, जो विकास आधारित और प्रदर्शन केंद्रित शासन की बात करता है — जैसे आधारभूत ढाँचा, बिजली, महिलाओं का सशक्तिकरण आदि।

दूसरी ओर महागठबंधन (MGB) की राजनीति है, जो लोकलुभावन कल्याण योजनाओं के वादों पर आधारित है — मुफ्त बिजली, नकद हस्तांतरण, रोजगार गारंटी और आजीविका योजनाएँ।

दोनों ही पक्ष गरीबी और आकांक्षा को राजनीतिक समर्थन में बदलना चाहते हैं, लेकिन उनके रास्ते अलग-अलग हैं — एक विकास और जवाबदेही पर आधारित, दूसरा वितरण और सहायता पर।

 

सामाजिक-आर्थिक विभाजन और आँकड़े:

नीति आयोग के बहुआयामी गरीबी सूचकांक (MPI) के अनुसार बिहार की गरीबी दर 2015-16 में 0.265 से घटकर 2019-21 में 0.160 हुई है।

हालाँकि यह सुधार समान रूप से नहीं हुआ।

पटना जैसे शहरी जिलों में केवल 23% लोग बहुआयामी रूप से गरीब हैं, जबकि सीमांचल और मधेपुरा जैसे जिलों में अब भी गरीबी गहरी है। नालंदा, भोजपुर और बेगूसराय जैसे जिले सुशासन आधारित भागीदारी के प्रतीक बन रहे हैं।

इसके बावजूद, चुनावी आंकड़े बताते हैं कि विजेता उम्मीदवार कुल पंजीकृत मतदाताओं के केवल 20% से 33% तक का ही प्रतिनिधित्व करते हैं। यह दर्शाता है कि बिहार में वोटों का बिखराव और सीमित प्रतिनिधित्व गंभीर मुद्दे बने हुए हैं।

 

शहरी-ग्रामीण विरोधाभास:

बिहार के शहरी क्षेत्र — जैसे पटना और गया — NDA के लिए लगातार समर्थन दिखाते रहे हैं क्योंकि यहाँ मेट्रो, सड़कें, पुल जैसी विकास परियोजनाएँ दिखाई देती हैं। परंतु यह विकास अधिकतर प्रतीकात्मक है, क्योंकि इससे रोजगार या औद्योगिक अवसर में खास सुधार नहीं हुआ है। इस प्रकार शहरी बिहार में दृश्य विकास और असंतोष का विरोधाभास बना हुआ है।

वहीं ग्रामीण बिहार, विशेषकर सीमांचल क्षेत्र, अब भी कल्याण निर्भर राजनीति के जाल में फँसा हुआ है, जहाँ राजनीतिक दल वेलफेयर नेटवर्क और समुदाय आधारित संरक्षणवाद के माध्यम से वोट जुटाते हैं। यहाँ राजद और एआईएमआईएम जैसी पार्टियाँ गरीब तबके को कल्याण योजनाओं के ज़रिए सक्रिय बनाए रखती हैं।

 

वैचारिक और राजनीतिक महत्व:

यह चुनाव केवल बिहार की राजनीति नहीं, बल्कि भारतीय लोकतंत्र की परिपक्वता की परीक्षा भी है।

यह इस बात का संकेत देगा कि क्या गरीब और जातिगत रूप से विभाजित राज्य कल्याण आधारित राजनीति से आगे बढ़कर जवाबदेह शासन को अपनाने में सक्षम है या नहीं।

यह चुनाव यह भी दर्शाता है कि भारत में राजनीति अब विकास के दिखावे और वास्तविक परिणामों के बीच संतुलन तलाश रही है।

इसका परिणाम देश के अन्य राज्यों में भी चुनावी रणनीतियों और जनमत निर्माण के तरीकों को प्रभावित करेगा।

 

प्रभाव और निहितार्थ:

अल्पकालिक रूप से, यह चुनाव अत्यंत प्रतिस्पर्धी होने जा रहा है जिसमें NDA, MGB, और जन सुराज के बीच त्रिकोणीय मुकाबला संभव है। महिला और युवा मतदाता निर्णायक भूमिका निभा सकते हैं और पारंपरिक जातिगत समीकरणों को बदल सकते हैं।

दीर्घकालिक रूप से, यदि बिहार में सुशासन आधारित राजनीति मजबूत होती है, तो यह राज्य को कल्याण निर्भरता के जाल से बाहर निकाल सकता है और जवाबदेह लोकतंत्र का मॉडल बन सकता है।

परंतु यदि लोकलुभावन कल्याण राजनीति जारी रही, तो बिहार की संरचनात्मक गरीबी बनी रह सकती है और विकास केवल दिखावटी रहेगा।

 

निष्कर्ष:

  • वर्ष 2025 का बिहार विधानसभा चुनाव केवल एक राजनीतिक मुकाबला नहीं, बल्कि यह एक लोकतांत्रिक जनमत संग्रह है —
  • क्या बिहार कल्याण आधारित निर्भरता की राह पर रहेगा या सुशासन आधारित सुधारों की ओर बढ़ेगा?
  • यह चुनाव राहत की राजनीति बनाम सुधार की राजनीति, निर्भरता बनाम जवाबदेही, और लोकलुभावनवाद बनाम नीति-आधारित शासन के बीच की जंग है।
  • बिहार अब उस मोड़ पर है जहाँ उसे तय करना है —
  • क्या गरीबी वफादारी की गारंटी बनी रहेगी, या अब वह जवाबदेही की मांग में बदलेगी। 
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