ट्रम्प का टैरिफ दबाव एशियाई देशों को अमेरिकी LNG की ओर धकेल रहा है:

ट्रम्प का टैरिफ दबाव एशियाई देशों को अमेरिकी LNG की ओर धकेल रहा है:

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द हिंदू: 19 जुलाई 2025 को प्रकाशित:

 

क्यों चर्चा में है?

एशियाई देश तेजी से अमेरिका के साथ व्यापार वार्ताओं के तहत अधिक मात्रा में अमेरिकी तरलीकृत प्राकृतिक गैस (LNG) खरीदने की पेशकश कर रहे हैं। ये प्रयास अमेरिका के साथ व्यापार घाटे को कम करने और वहां की सरकार द्वारा लगाए गए अतिरिक्त टैरिफ से बचने के उद्देश्य से किए जा रहे हैं। हालांकि, यह रणनीति दीर्घकालिक जलवायु लक्ष्यों और क्षेत्रीय ऊर्जा सुरक्षा के लिए चिंताएं पैदा कर रही है।

 

प्रमुख हितधारक

इस घटनाक्रम के मुख्य हितधारकों में अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप की प्रशासन, जापान, भारत, वियतनाम, थाईलैंड और फिलीपींस जैसे एशियाई देश, तथा ऊर्जा कंपनियां जैसे कि जापान की सबसे बड़ी बिजली उत्पादक कंपनी JERA शामिल हैं। साथ ही, जलवायु विशेषज्ञ और ऊर्जा नीति विश्लेषक भी इसमें गहराई से जुड़े हुए हैं क्योंकि LNG आयात के पर्यावरणीय प्रभाव गंभीर हैं।

 

क्या दांव पर लगा है?

व्यापार संबंध:

एशियाई देश अमेरिका के साथ व्यापार संबंध बेहतर बनाने के लिए अमेरिकी LNG को एक सौदेबाजी के उपकरण के रूप में उपयोग कर रहे हैं। इसका उद्देश्य अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप द्वारा लगाए जा रहे और टैरिफ से बचाव करना है, जिन्होंने व्यापार घाटे को कम करना प्रमुख नीति लक्ष्य बनाया है।

 

जलवायु प्रतिबद्धताएं:

दीर्घकालिक LNG अनुबंधों में बंध जाना इन देशों की नवीकरणीय ऊर्जा और उत्सर्जन कटौती के लक्ष्यों को पटरी से उतार सकता है। भले ही LNG कोयले की तुलना में साफ ईंधन हो, यह अब भी ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन करता है।

 

ऊर्जा सुरक्षा:

अमेरिकी LNG पर अत्यधिक निर्भरता, खासकर अस्थिर वैश्विक ऊर्जा बाजारों में, ऊर्जा सुरक्षा पर सवाल उठाती है। अगर मांग घटती है या नवीकरणीय ऊर्जा सस्ती हो जाती है, तब भी देशों को “टेक-ऑर-पे” (लेना ही होगा या भुगतान करना होगा) अनुबंधों के तहत गैस का भुगतान करना पड़ सकता है, चाहे वह उपयोग में आए या नहीं।

 

दीर्घकालिक प्रभाव

भूराजनीतिक असर:

ये ऊर्जा सौदे व्यापार वार्ताओं में सौदेबाजी के उपकरण के रूप में उपयोग किए जा रहे हैं। हालांकि, विशेषज्ञों का कहना है कि बड़े पैमाने पर LNG खरीदने के बावजूद इससे अमेरिका के व्यापार घाटे में कोई महत्वपूर्ण कमी नहीं आएगी। ट्रंप द्वारा ज़ोर देकर प्रचारित किया गया $44 बिलियन का अलास्का LNG प्रोजेक्ट अधिकांश विश्लेषकों की नजर में आर्थिक रूप से अव्यवहारिक है।

 

पर्यावरणीय परिणाम:

LNG पाइपलाइनों, टर्मिनलों और गैस आधारित चूल्हों जैसी अवसंरचना में निवेश से जीवाश्म ईंधनों पर दीर्घकालिक निर्भरता बढ़ती है। इससे भविष्य में नवीकरणीय ऊर्जा की ओर संक्रमण महंगा और कठिन हो जाता है, जिससे सतत ऊर्जा की दिशा में गति धीमी हो सकती है।

 

आर्थिक बोझ:

बाध्यकारी अनुबंधों के चलते देशों को आर्थिक संकट का सामना करना पड़ सकता है। उदाहरण के लिए, पाकिस्तान ने दीर्घकालिक LNG सौदे किए थे, लेकिन अब वह शिपमेंट को टाल रहा है और ऊर्जा लागत में वृद्धि झेल रहा है, जबकि नागरिक रूफटॉप सोलर की ओर रुख कर रहे हैं। यह दिखाता है कि LNG पर अत्यधिक निर्भरता आर्थिक रूप से जोखिमपूर्ण हो सकती है।

 

विशेषज्ञों की राय:

ऊर्जा सलाहकार टिम डाइस का कहना है कि जापान जैसे देश व्यापार दबाव में आकर अतिरिक्त अमेरिकी LNG खरीद रहे हैं, भले ही उनके पास पहले से इसकी अधिकता हो। नार्वे के अंतरराष्ट्रीय मामलों के संस्थान के इंद्रा ओवरलैंड ने चेतावनी दी कि ऐसे सौदे देशों को पुरानी ऊर्जा प्रणालियों में फंसा सकते हैं, जिससे नवीकरणीय ऊर्जा अपनाना मुश्किल हो जाएगा। ऊर्जा अर्थशास्त्र और वित्तीय विश्लेषण संस्थान के क्रिस्टोफर डोलमैन ने कहा कि “टेक-ऑर-पे” प्रावधानों के कारण देश ऐसी गैस के लिए भी भुगतान कर सकते हैं जिसे वे वास्तव में इस्तेमाल नहीं करते।

 

देशों द्वारा उठाए गए कदम:

जापान ने अमेरिका से 2030 से हर साल 5.5 मिलियन मीट्रिक टन तक LNG खरीदने के लिए 20-वर्षीय समझौता किया है।

वियतनाम ने एक अमेरिकी गैस आयात टर्मिनल विकसित करने का करार किया है।

भारत अमेरिकी ऊर्जा शिपमेंट पर आयात शुल्क हटाने की संभावना पर विचार कर रहा है।

थाईलैंड ने अलास्का LNG पाइपलाइन में रुचि दिखाई है।

फिलीपींस भी इसी प्रोजेक्ट से गैस आयात पर विचार कर रहा है।

 

निष्कर्ष:

जहां एक ओर अमेरिका से LNG आयात बढ़ाना कूटनीतिक और व्यापारिक दृष्टि से अल्पकालिक लाभ दे सकता है, वहीं विशेषज्ञ चेतावनी दे रहे हैं कि इस रणनीति से एशिया के दीर्घकालिक जलवायु लक्ष्य, आर्थिक लचीलापन और ऊर्जा सुरक्षा को खतरा हो सकता है। ट्रंप प्रशासन द्वारा व्यापार घाटे को LNG निर्यात से जोड़ने का प्रयास उल्टा भी पड़ सकता है, खासकर तब जब देश जीवाश्म ईंधन की अवसंरचना में फंस जाएं और दुनिया की ऊर्जा ज़रूरतें तेजी से स्वच्छ विकल्पों की ओर बढ़ती जाएं। 

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