भारत में बलात्कार-विरोधी कानूनों की प्रगति

भारत में बलात्कार-विरोधी कानूनों की प्रगति

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द हिंदू: 18 नवंबर 2025 को प्रकाशित।

 

चर्चा में  क्यों है?

भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) डी. वाई. चंद्रचूड़ की तरह, हाल ही में मुख्य न्यायाधीश बी. आर. गवई ने भी 1979 के सुप्रीम कोर्ट के उस विवादित फैसले की कड़ी आलोचना की है, जिसमें महाराष्ट्र की किशोर आदिवासी लड़की के हिरासत में बलात्कार मामले में दो पुलिसकर्मियों को यह कहकर बरी कर दिया गया था कि “उसने सहमति दी थी” क्योंकि उसके शरीर पर चोट के स्पष्ट निशान नहीं मिले।

CJI गवई ने इस फैसले को “संवैधानिक संस्था के लिए शर्म का क्षण” बताया और कहा कि यह निर्णय सहमति की गहरी गलत, पितृसत्तात्मक और असंवेदनशील समझ पर आधारित था।

उनकी टिप्पणी ने एक बार फिर भारत में बलात्कार कानूनों के विकास, “सहमति” की कानूनी व्याख्या और महिलाओं के अधिकारों की दशकों लंबी लड़ाई को चर्चा में ला दिया है।

 

पृष्ठभूमि: 1972–1979 का ‘मथुरा केस’:

यह मामला महाराष्ट्र की 14–16 वर्ष की एक आदिवासी अनाथ लड़की से जुड़ा था, जिसे उसके साथियों सहित रात में पुलिस स्टेशन बुलाया गया।

सवाल-जवाब के बाद बाकी लोगों को भेज दिया गया और मथुरा को पुलिस स्टेशन में रोक लिया गया, जहां एक हेड कॉन्स्टेबल और एक कॉन्स्टेबल ने उसका यौन शोषण किया।

सेशन कोर्ट ने पीड़िता के बयान को झूठा बताया और कहा कि वह “यौन क्रिया की अभ्यस्त” है।

बॉम्बे हाईकोर्ट (1976) ने इसे पलटते हुए कहा कि यह स्पष्ट रूप से जबरन संभोग (rape) था, न कि सहमति।

सुप्रीम कोर्ट (1979) ने हाईकोर्ट का निर्णय उलट दिया और कहा कि क्योंकि “प्रतिरोध के निशान नहीं थे”, इसलिए संभोग “शांतिपूर्वक” हुआ, अर्थात “सहमति” थी।

यह निर्णय भारत में न्याय व्यवस्था के एक बड़े विफल क्षण के रूप में दर्ज हुआ।

 

महिलाओं के अधिकार आंदोलन का मोड़:

1979 के इस फैसले के बाद देशभर में भारी आक्रोश हुआ।

चार बुद्धिजीवियों—उपेन्द्र बक्षी, वसुंधा धगमवार, रघुनाथ केलकर और लोटिका सरकार—ने सुप्रीम कोर्ट को एक खुला पत्र लिखा, जिसने पूरे विमर्श को बदल दिया।

उन्होंने स्पष्ट किया कि:

‘सहमति’ और ‘आत्मसमर्पण’ (submission) अलग चीजें हैं।

मात्र प्रतिरोध न होना सहमति नहीं माना जा सकता।

गरीब, नाबालिग, भयभीत लड़की से पुलिसकर्मियों के सामने “सहमति” की अपेक्षा करना सामाजिक यथार्थ के विपरीत है।

यह पत्र और सार्वजनिक विरोध 1980 के दशक से एक बड़े विधिक सुधार आंदोलन का आधार बना।

 

भारत में बलात्कार कानूनों का विकास: एक लंबी यात्रा

(a) 1983 का क्रिमिनल लॉ अमेंडमेंट

मथुरा कांड के बाद पहला बड़ा सुधार:

हिरासत में बलात्कार को IPC की धारा 376 में अलग और गंभीर अपराध घोषित किया गया।

एक महत्वपूर्ण बदलाव: यदि यौन संबंध साबित हो जाए तो सहमति साबित करने का बोझ आरोपी पर होगा, पीड़िता पर नहीं।

पुलिस द्वारा महिलाओं को रात में बुलाने जैसी प्रथाओं की निंदा और प्रतिबंध।

साथ ही दहेज कानूनों को कठोर और फैमिली कोर्ट्स एक्ट का गठन।

 

(b) ‘विशाखा मार्गदर्शिका’ (1997)

भंवरी देवी के सामूहिक बलात्कार के बाद सुप्रीम कोर्ट ने कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न के खिलाफ विशाखा दिशानिर्देश जारी किए, जिसने बाद में POSH कानून (2013) की नींव रखी।

 

(c) निर्भया कांड और 2013 संशोधन

16 दिसंबर 2012 की घटना ने पूरे देश को झकझोर दिया।

इसके बाद आए क्रिमिनल लॉ अमेंडमेंट एक्ट, 2013 में कई ऐतिहासिक बदलाव हुए:

बलात्कार की परिभाषा का विस्तार (केवल “जबरन संभोग” तक सीमित नहीं)।

यह स्पष्ट किया गया कि महिला की चुप्पी या कमजोर “ना” भी सहमति नहीं है।

सहमति की उम्र बढ़ाकर 18 वर्ष कर दी गई।

FIR दर्ज न करने वाले पुलिस अधिकारियों पर सजा।

पीड़ित के उपचार के लिए अस्पतालों पर दायित्व।

गंभीर मामलों में मृत्युदंड का प्रावधान।

 

(d) उन्नाव और कठुआ कांड → 2018 संशोधन

2017–18 के मामलों ने एक और सुधार लाया:

12 वर्ष से कम उम्र की बच्चियों के साथ बलात्कार पर मृत्युदंड।

16 वर्ष से कम उम्र की बच्चियों पर बलात्कार के लिए न्यूनतम 20 वर्ष कैद।

तेज़ जांच और तेज़ ट्रायल की सख्त समय सीमा।

 

(e) 2023 का भारतीय न्याय संहिता (BNS)

सबसे हालिया सुधारों में:

यौन अपराधों को जेंडर-न्यूट्रल बनाया गया।

“झूठे बहाने से यौन संबंध” को अपराध के रूप में शामिल किया गया।

यौन उत्पीड़न की परिभाषा को व्यापक बनाया।

18 वर्ष से कम उम्र की महिला के साथ सामूहिक बलात्कार पर आजन्म कारावास या मृत्युदंड।

 

मूल प्रश्न: ‘सहमति’ की नई कानूनी व्याख्या:

पिछले 40–45 वर्षों के सारे सुधार एक ही मूल गलती को सुधारते दिखते हैं:

1979 में सुप्रीम कोर्ट ने चोट न होना = सहमति जैसा पुराना, पितृसत्तात्मक दृष्टिकोण अपनाया था।

अब कानून स्पष्ट रूप से कहता है:

सहमति का मतलब स्पष्ट, स्वैच्छिक और सकारात्मक अनुमति है।

भय, दबाव, शक्ति असंतुलन (custody, police authority) सहमति को अमान्य बनाता है।

मजबूर होकर किया आत्मसमर्पण सहमति नहीं है।

 

न्यायपालिका का आत्ममंथन और जवाबदेही:

CJI गवई का बयान इस बात का संकेत है कि भारत की सर्वोच्च न्यायपालिका भी अब अपने अतीत की गलतियों पर खुलकर आलोचना कर रही है।

यह दिखाता है कि:

अदालतों ने कभी-कभी पितृसत्तात्मक सोच को बढ़ावा दिया।

न्यायिक तंत्र को पीड़िता की संवेदनशीलता और सामाजिक यथार्थ को समझना चाहिए।

न्यायपालिका की जिम्मेदारी है कि वह सबसे कमजोर की रक्षा करे, न कि उन्हें असुरक्षित छोड़े।

 

व्यापक महत्व:

  • मथुरा मामला आज भी हमें याद दिलाता है कि:
  • महिलाओं के अधिकारों के लिए भारत में लंबी लड़ाई लड़ी गई है।
  • जनता, बुद्धिजीवियों और सामाजिक आंदोलनों ने कानून बदलवाए हैं।
  • एक निर्णय देश के आपराधिक न्याय ढांचे को बदल सकता है।
  • यह कहानी केवल एक केस की नहीं, बल्कि सहमति, शक्ति, न्याय और संवेदनशीलता को समझने की भारत की यात्रा की कहानी है। 
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