जाति गणना के निहितार्थ?

जाति गणना के निहितार्थ?

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द हिंदू: 6 मई 2025 को प्रकाशित:

 

खबरों में क्यों?

जाति आधारित जनगणना की मांग एक प्रमुख राजनीतिक और सामाजिक मुद्दा बन गई है।

आगामी राष्ट्रीय जनगणना में जाति आधारित आंकड़े शामिल करने की मांग तेज हो गई है, खासकर बिहार जाति सर्वेक्षण और 2024 लोकसभा चुनावों के बाद।

राहुल गांधी, अखिलेश यादव जैसे नेता और कांग्रेस व समाजवादी पार्टी जैसी पार्टियाँ जातिगत आंकड़ों के ज़रिए सामाजिक न्याय और अनुपातिक प्रतिनिधित्व की वकालत कर रही हैं।

 

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि:

औपनिवेशिक काल में पहली बार 1872 में जनगणना हुई और 1901 में H.H. Risley ने जाति को एक राजनीतिक औजार के रूप में उपयोग करना शुरू किया।

आज़ादी के बाद, काका कालेलकर आयोग (1953) और मंडल आयोग (1980) ने पिछड़ी जातियों की पहचान और सिफारिशें कीं।

मंडल आयोग की आंशिक क्रियान्वयन (1990) ने ओबीसी राजनीति को नया रूप दिया, लेकिन यह 1931 के आंकड़ों पर आधारित था, जिससे नई जातिगत जनगणना की माँग को बल मिला।

 

राजनीतिक प्रभाव:

ओबीसी सशक्तिकरण: नई जाति जनगणना से कमजोर और अल्पसंख्यक पिछड़ी जातियों को पहचान और भागीदारी का मौका मिलेगा।

 

राजनीतिक दलों की रणनीति:

भाजपा: OBC और EBC को अपने सामाजिक आधार में शामिल कर रही है; जनगणना से इसका विस्तार हो सकता है।

विपक्ष: कांग्रेस और INDIA गठबंधन जातिगत गणना को राजनीतिक पुनर्स्थापन का जरिया बना रहे हैं।

चुनावी समीकरणों में बदलाव: जाति जनगणना से राजनीतिक दलों के वोट बैंक और गठबंधन रणनीति में बदलाव हो सकता है।

 

सामाजिक और आर्थिक प्रभाव:

हाशिये पर मौजूद जातियों को मान्यता मिलेगी और नीतिगत पहचानों में स्थान मिलेगा।

डेटा आधारित योजनाएँ: अद्यतन आंकड़ों से आरक्षण, शिक्षा और कल्याण योजनाएँ अधिक सटीक और प्रभावशाली होंगी।

आर्थिक असमानता उजागर होगी: अगर जाति के साथ जमीन और आय के आंकड़े जोड़े जाएँ, तो जातिगत आर्थिक असमानता सामने आएगी।

 

प्रशासनिक और शासकीय प्रभाव:

नीति निर्माण में सुधार: जनगणना से बेहतर संसाधन आवंटन और नीति निर्धारण संभव होगा।

कार्यान्वयन की चुनौतियाँ: जाति आधारित जनगणना तकनीकी और राजनीतिक रूप से संवेदनशील है; सामाजिक तनाव की संभावना है।

कानूनी चुनौतियाँ: निजता, समानता और संवैधानिक सीमाओं के कारण न्यायिक बाधाएँ सामने आ सकती हैं।

 

विरोधाभास और आलोचनाएँ:

प्रतिभा बनाम आरक्षण बहस: आलोचक कहते हैं कि जाति जनगणना से पहचान आधारित राजनीति को बढ़ावा मिलेगा।

वर्चस्व की समस्या: वर्तमान में कुछ मध्यवर्ती जातियों का वर्चस्व है — नई जनगणना से संतुलन बहाल हो सकता है।

‘पिछड़ा’ की परिभाषा अस्पष्ट: जातियों की पहचान और वर्गीकरण में विवाद और टकराव की संभावना बनी रहती है।

 

भविष्य की दिशा / आगे की राह:

यदि 2025-26 की जनगणना में जाति गणना होती है, तो:

यह वित्त आयोग की सिफारिशों को प्रभावित करेगी

आरक्षण की नई संरचना निर्धारित कर सकती है

2029 के आम चुनावों में नई राजनीतिक धारा को जन्म दे सकती है

सभी दल जातिगत वोट बैंक को साधने के लिए नई रणनीतियाँ अपनाएँगे, खासकर बिहार, यूपी, एमपी जैसे राज्यों में।

 

निष्कर्ष:

  • जाति जनगणना सामाजिक न्याय, प्रतिनिधित्व और नीति निर्धारण के लिए एक ऐतिहासिक अवसर हो सकता है। 
  • लेकिन इसे संवेदनशीलता और जिम्मेदारी के साथ करना होगा ताकि यह देश को बाँटने का नहीं, जोड़ने का माध्यम बने।
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