द हिंदू: 29 जनवरी 2025 को प्रकाशित:
चर्चा में क्यों है?
राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP) 2020 ने भारत के स्कूलों में तीन-भाषा नीति लागू करने की सिफारिश की है। हालांकि, जब दो भाषाओं में भी दक्षता हासिल करना चुनौतीपूर्ण है, तो तीसरी भाषा को अनिवार्य रूप से जोड़ना विवादास्पद है।
मुख्य मुद्दे:
1. नीति-निर्माण और प्रमाण-आधारित विश्लेषण की कमी
2. सर्वेक्षण क्या कहते हैं?
PISA (Programme for International Student Assessment) 2009: भारत 74 में से 73वें स्थान पर रहा। इसके बाद भारत ने PISA से हटने का फैसला किया।
राष्ट्रीय उपलब्धि सर्वेक्षण (NAS) 2017 और 2021:
ASER (Annual Status of Education Report) 2018 और 2022:
2022 में, कक्षा 8 के 30.4% छात्र कक्षा 2 स्तर का पाठ भी नहीं पढ़ सकते थे।
अंग्रेजी पढ़ने में 2016 में 73.8% छात्र असमर्थ थे, जो 2022 में घटकर 53.3% हुआ।
3. शोध क्या कहता है?
4. क्रियान्वयन की चुनौतियाँ
शिक्षकों की कमी: प्रत्येक भाषा के लिए योग्य शिक्षकों की उपलब्धता एक बड़ी चुनौती होगी।
वित्तीय बोझ: स्कूलों में अतिरिक्त शिक्षण संसाधनों की आवश्यकता होगी, जिससे बजट प्रभावित होगा।
छात्रों की भाषा पसंद: छात्रों की विविध पसंद को पूरा करना कठिन होगा, जिससे हिंदी या संस्कृत को थोपने की संभावना बढ़ जाएगी।
5. तकनीक का बेहतर उपयोग
6. सिंगापुर से सीखने की जरूरत
सिंगापुर ने अंग्रेजी को पहली भाषा और मातृभाषा (मंदारिन, मलय, तमिल) को दूसरी भाषा के रूप में अपनाया।
इससे सामाजिक समरसता बनी और वैश्विक प्रतिस्पर्धा में देश आगे बढ़ा।
7. हिंदी को जोड़ने की बाध्यता क्यों गलत?
2011 की जनगणना के अनुसार, 43.63% भारतीय हिंदी बोलते हैं, लेकिन इस आंकड़े में 53 अन्य भाषाओं को हिंदी की "बोलियाँ" माना गया है।
वास्तव में, केवल 25% भारतीय शुद्ध हिंदी बोलते हैं।
भारत में 95.28% लोग अपने ही राज्य के भीतर रहते हैं और अपनी स्थानीय भाषा का ही उपयोग करते हैं।
निष्कर्ष-