अध्ययन से पता चला है कि शहरी मकड़ी शोर को रोकने के लिए जाल बनाती है:

अध्ययन से पता चला है कि शहरी मकड़ी शोर को रोकने के लिए जाल बनाती है:

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द हिंदू: 29 अप्रैल 2025 को प्रकाशित:

 

क्यों चर्चा में है?

हाल ही में करंट बायोलॉजी (Current Biology) में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार, शहरी क्षेत्रों में रहने वाली मकड़ियाँ अपने जाले की संरचना इस प्रकार बदलती हैं कि वह आसपास के तेज शोर को फ़िल्टर कर सकें। यह प्राकृतिक शोर प्रदूषण से निपटने के लिए मकड़ियों द्वारा की गई पहली ज्ञात अनुकूलनात्मक प्रतिक्रिया है। भारत जैसे शोर-प्रदूषित देशों के लिए यह अध्ययन बेहद महत्वपूर्ण संकेत देता है।

 

अध्ययन का विषय

मुख्य शोधकर्ता: ब्रांडी पेसमैन और ऐलीन हेबेट्स (नेब्रास्का-लिंकन विश्वविद्यालय)

अध्ययन की गई प्रजाति: Agelenopsis pennsylvanica (फनल बुनने वाली मकड़ी)

 

प्रयोग:

शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों की मकड़ियों को शोरयुक्त और शांत वातावरण में रखा गया। चार दिनों के भीतर उन्होंने जाले बनाए। फिर वैज्ञानिकों ने उनके जालों में कंपन भेजकर विश्लेषण किया।

 

मुख्य निष्कर्ष-

मकड़ियों के जाले सिर्फ शिकार फँसाने के लिए नहीं बल्कि उनके संवेदन तंत्र का विस्तार हैं।

शहरी मकड़ियाँ जाले इस तरह बनाती हैं कि वे विस्तृत आवृत्ति (300–1000 Hz) की ऊर्जा को कमज़ोर कर देती हैं।

ग्रामीण मकड़ियाँ अपने जालों में संकीर्ण आवृत्ति (350–600 Hz) की ऊर्जा को संरक्षित रखती हैं।

यह परिवर्तन केवल तभी स्पष्ट हुआ जब उन्हें ज़ोरदार शोर के संपर्क में लाया गया, जो दिखाता है कि मकड़ियाँ शोर के अनुसार अपनी रणनीति बदलती हैं।

 

वैज्ञानिक और पारिस्थितिक महत्व-

यह अध्ययन शहरी वातावरण में प्राणी व्यवहार में बदलाव दर्शाता है।

स्पाइडर सिल्क की ताकत और लचीलापन पहले ही मेडिकल और वस्त्र उद्योगों में उपयोग किया जा रहा है।

जाल में कंपन से जानकारी प्राप्त करने की प्रक्रिया को अब और गहराई से समझा जा रहा है।

 

भारत और शहरी जैव विविधता पर प्रभाव-

भारत के शहरी क्षेत्र अत्यधिक शोर-प्रदूषित हैं।

कानूनों में शोर की सीमा तय है, लेकिन जंगली जीवों पर इसके प्रभाव पर बहुत कम ध्यान दिया गया है।

इस अध्ययन से पता चलता है कि जंगली जीव भी इंसानों की तरह शोर से परेशान होते हैं और अपनी जीवनशैली में बदलाव कर रहे हैं।

 

विशेषज्ञों की राय-

ब्रांडी पेसमैन: “जाले सिर्फ जाल नहीं हैं, यह मकड़ी के ‘सेंसिंग सिस्टम’ का हिस्सा हैं।”

शैनन ओल्सन (शहरी पारिस्थितिकी विशेषज्ञ): “यह अध्ययन दिखाता है कि शहरी वातावरण में लगातार रहने से मकड़ियों के व्यवहार और जाल-निर्माण में परिवर्तन आता है।”

 

वैश्विक परिप्रेक्ष्य-

आज पूरी दुनिया कार्बन पर ही केंद्रित है (‘कार्बन टनल विजन’), लेकिन शोर, प्रकाश और वायु प्रदूषण भी त्वरित और गंभीर प्रभाव डालते हैं।

शोर का प्रभाव जानवरों के निवास, भोजन ढूंढने की क्षमता और संचार प्रणाली पर पड़ता है — यह विशेष रूप से इस अध्ययन में स्पष्ट हुआ।

 

पौराणिक और सांस्कृतिक संकेत-

अफ्रीकी और यूनानी पौराणिक कथाओं में मकड़ी को रचनात्मकता और बुद्धिमत्ता का प्रतीक माना गया है।

चेरोकी (Cherokee) जनजाति के अनुसार, मकड़ी का जाल सभी जीवों के आपसी संबंधों का रूपक है — और यह अध्ययन इस प्रतीकात्मकता को आधुनिक विज्ञान से जोड़ता है।

 

निष्कर्ष-

  • यह शोध यह बताता है कि प्राकृतिक जीव शहरीकरण के दबाव में कैसे ढलते हैं। मकड़ियों द्वारा अपने जाल की बनावट में बदलाव करना इस बात का संकेत है कि हर जीव अपनी संवेदन प्रणाली और पर्यावरणीय प्रतिक्रियाओं को ढालने की क्षमता रखता है।
  • भारत जैसे विकासशील देश, जहाँ शोर प्रदूषण नियंत्रण में नहीं है, के लिए यह अध्ययन जैव विविधता के संरक्षण की दिशा में चेतावनी और अवसर दोनों है।
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