क्या तीसरी भाषा अनिवार्य होनी चाहिए?

क्या तीसरी भाषा अनिवार्य होनी चाहिए?

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द हिंदू: 26 फरवरी 2025 को प्रकाशित:

 

यह खबर में क्यों है?

केंद्र सरकार और तमिलनाडु सरकार के बीच नई शिक्षा नीति (NEP) 2020 के तहत त्रिभाषा सूत्र (Three-Language Formula) को लेकर विवाद चल रहा है। केंद्र सरकार ने समग्र शिक्षा अभियान (Samagra Shiksha Abhiyan) के तहत मिलने वाले अनुदान को इस नीति के पालन से जोड़ा है। वहीं, तमिलनाडु सरकार इसे हिंदी थोपने का प्रयास मानती है और अपने द्विभाषा नीति (तमिल और अंग्रेज़ी) को जारी रखने के पक्ष में है।

 

प्रमुख मुद्दे

त्रिभाषा नीति का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य-

  • 1968 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP) में पहली बार त्रिभाषा नीति लाई गई थी।
  • इसमें ग़ैर-हिंदी भाषी राज्यों में हिंदी पढ़ाना अनिवार्य किया गया, जिससे तमिलनाडु में भारी विरोध हुआ।
  • तब से तमिलनाडु ने केवल दो भाषाएँ – तमिल और अंग्रेज़ी को अपनाया।
  • NEP 2020 में भी यह नीति बनी रही, लेकिन इसमें यह कहा गया कि कोई भी भाषा किसी राज्य पर थोपी नहीं जाएगी।

 

संवैधानिक और कानूनी प्रावधान-

संविधान के अनुसार हिंदी भारत की आधिकारिक भाषा है, लेकिन अंग्रेज़ी भी आधिकारिक कामकाज में अनिश्चितकाल तक जारी रहेगी।

राज्य सरकारें अपनी आधिकारिक भाषाएँ चुनने के लिए स्वतंत्र हैं।

संविधान केंद्र सरकार को हिंदी को बढ़ावा देने का कर्तव्य देता है, लेकिन राज्यों के लिए ऐसी कोई अनिवार्यता नहीं है।

 

शिक्षा के स्तर से जुड़ी समस्याएँ-

  • ASER 2022 और 2023 की रिपोर्ट के अनुसार, भारतीय स्कूलों में सीखने के नतीजे कमजोर हैं।
  • कक्षा V के 60% छात्र कक्षा II की पाठ्यपुस्तक नहीं पढ़ सकते।
  • 14-18 वर्ष के 25% युवा अपनी क्षेत्रीय भाषा में ही कक्षा II का पाठ ठीक से नहीं पढ़ पाते।
  • 40% से अधिक छात्र अंग्रेज़ी वाक्य पढ़ने में भी असमर्थ हैं।
  • अगर सरकारी स्कूलों में एक और भाषा जोड़ दी जाए, तो छात्रों पर अतिरिक्त बोझ पड़ सकता है।

 

शिक्षा के लिए वित्तीय संकट

प्राथमिक शिक्षा पर 85% खर्च राज्य सरकारें करती हैं, जबकि केंद्र सरकार सिर्फ 15% फंड देती है।

शिक्षा पर कुल खर्च GDP का 4-4.5% है, जो कि NEP 2020 में तय किए गए 6% लक्ष्य से कम है।

समग्र शिक्षा अभियान के फंड को त्रिभाषा नीति से जोड़ने से तमिलनाडु को आर्थिक समस्या हो सकती है।

 

त्रिभाषा नीति के संभावित प्रभाव

भाषा और पहचान का मुद्दा – तमिलनाडु इसे हिंदी थोपने की कोशिश मानता है, जो राज्य की भाषाई स्वतंत्रता के खिलाफ हो सकता है।

छात्रों पर अतिरिक्त शैक्षणिक बोझ – पहले से ही सीखने के स्तर में कमी को देखते हुए, एक और भाषा जोड़ने से छात्रों की परेशानी बढ़ सकती है।

राज्यों को अधिक वित्तीय स्वायत्तता – केंद्र द्वारा शिक्षा नीतियों को अनुदान से जोड़ना राज्यों के अधिकारों को कम कर सकता है।

शहरीकरण और प्राकृतिक भाषा अधिग्रहण – 2011 की जनगणना के अनुसार, भारत में 26% लोग द्विभाषी और 7% लोग त्रिभाषी हैं।

शहरी क्षेत्रों में यह संख्या 44% और 15% है, जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में 22% और 5%।

माइग्रेशन और शहरीकरण के चलते लोग स्वाभाविक रूप से कई भाषाएँ सीख रहे हैं, जिससे अनिवार्य रूप से तीसरी भाषा जोड़ने की आवश्यकता कम हो जाती है।

 

आगे क्या हो सकता है?

केंद्र और राज्यों के बीच संवाद – तमिलनाडु सरकार और केंद्र सरकार को रचनात्मक संवाद करना होगा, ताकि शिक्षा के लिए फंड में देरी न हो।

भाषा सीखने और शिक्षा सुधार के बीच संतुलन – बहुभाषावाद महत्वपूर्ण है, लेकिन प्राथमिक शिक्षा में गुणवत्ता सुधार पहली प्राथमिकता होनी चाहिए।

राज्यों को अधिक नीति-निर्माण की स्वतंत्रता – क्षेत्रीय भाषाई विविधता को ध्यान में रखते हुए, राज्यों को स्कूल शिक्षा नीति में अधिक स्वायत्तता दी जानी चाहिए।

 

मुख्य निष्कर्ष

  • तमिलनाडु त्रिभाषा नीति का विरोध कर रहा है और इसे हिंदी थोपने की कोशिश मानता है।
  • ASER रिपोर्ट से शिक्षा के स्तर में गिरावट स्पष्ट होती है, जिससे यह बहस होती है कि एक और भाषा जोड़ना व्यावहारिक होगा या नहीं।
  • केंद्र सरकार स्कूल शिक्षा के लिए केवल 15% खर्च वहन करती है, फिर भी त्रिभाषा नीति के अनुपालन को फंडिंग से जोड़ रही है।
  • शहरीकरण और प्रवासन के कारण लोग स्वाभाविक रूप से कई भाषाएँ सीख रहे हैं, जिससे त्रिभाषा नीति की अनिवार्यता पर सवाल उठता है।
  • राज्यों और केंद्र के बीच शिक्षा नीति को लेकर संवाद और संतुलन की जरूरत है, ताकि शिक्षण की गुणवत्ता से समझौता न हो।
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