द हिंदू: 16 सितंबर 2025 को प्रकाशित।
चर्चा में क्यों?
1 सितम्बर 2025 को सुप्रीम कोर्ट ने एक जातीय अपराध (Kiran बनाम Rajkumar Jivaraj Jain) के आरोपी को दिया गया अग्रिम ज़मानत (Anticipatory Bail) रद्द कर दिया।
कोर्ट ने दोहराया कि अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 की धारा 18 स्पष्ट रूप से अग्रिम ज़मानत पर रोक लगाती है, यदि प्रथम दृष्टया (prima facie) मामला बनता है।
यह फैसला दलित पीड़ितों की सुरक्षा और कानून की मजबूती को रेखांकित करता है।
पृष्ठभूमि / अब तक की कहानी:
FIR (26 नवम्बर 2024): एक अनुसूचित जाति के व्यक्ति ने आरोप लगाया कि विधानसभा चुनाव में वोट न देने पर उसके साथ जातिसूचक गालियाँ, मारपीट, महिलाओं से छेड़छाड़, मंगलसूत्र लूट और पेट्रोल बम से घर जलाने की धमकी दी गई।
सत्र न्यायालय: अग्रिम ज़मानत अस्वीकार की, यह कहते हुए कि जातिवादी मंशा और गवाहियों से आरोप सिद्ध होते हैं।
बॉम्बे हाईकोर्ट (औरंगाबाद खंडपीठ): ज़मानत दे दी, आरोपों को राजनीतिक और अतिरंजित बताया।
सुप्रीम कोर्ट: हाईकोर्ट का आदेश पलट दिया और कहा कि यह “गंभीर त्रुटि और अधिकार क्षेत्र की अवैधता” थी।
मामले के तथ्य:
घटना वोट डालने से इनकार पर हुई।
आरोपियों ने हथियारों से हमला किया, जातिसूचक गालियाँ दीं, महिलाओं से छेड़छाड़ की, मंगलसूत्र लूटा और घर जलाने की धमकी दी।
स्वतंत्र गवाहों, हथियार बरामदगी और मेडिकल रिपोर्ट ने शिकायत को पुष्ट किया।
SC/ST अधिनियम में अग्रिम ज़मानत क्यों वर्जित है?
धारा 18 के अनुसार CrPC की धारा 438 (अग्रिम ज़मानत) लागू नहीं होती।
उद्देश्य:
सुप्रीम कोर्ट की मुख्य टिप्पणियाँ:
सार्वजनिक दृश्य (Public View): यदि अपमान/हमला दूसरों के सामने हुआ है तो धारा 3(1)(r) लागू होती है।
चुनावी कारण: वोट को लेकर प्रताड़ना धारा 3(1)(o) के अंतर्गत अपराध है।
हाईकोर्ट की गलती: उसने FIR को राजनीतिक और अतिरंजित मानकर “मिनी-ट्रायल” किया।
Prima Facie Test: अग्रिम ज़मानत पर कोर्ट को केवल प्रथम दृष्टया अपराध देखना चाहिए, न कि सबूतों का मूल्यांकन।
संवैधानिक दृष्टिकोण:
अग्रिम ज़मानत पर रोक अनुच्छेद 14 (समानता) और अनुच्छेद 21 (जीवन और स्वतंत्रता) का उल्लंघन नहीं है।
बल्कि यह दलित और आदिवासी समुदाय की गरिमा और सुरक्षा की गारंटी है।
प्रभाव:
दलित पीड़ितों की सुरक्षा और अपराधियों की जवाबदेही मज़बूत होगी।
अग्रिम ज़मानत को “कानूनी छेद” की तरह इस्तेमाल करने पर रोक।
चुनावी प्रताड़ना और जातीय हिंसा लोकतंत्र और सामाजिक न्याय पर सीधा प्रहार है—इसे कोर्ट ने स्पष्ट किया।
आगे की राह:
अदालतें अग्रिम ज़मानत पर केवल प्रथम दृष्टया जाँच करें, सबूतों का परीक्षण नहीं।
हाईकोर्ट को बिना मुकदमा चले आरोपों को अतिरंजित या राजनीतिक कहकर खारिज करने से बचना होगा।
SC/ST अधिनियम केवल औपचारिक प्रक्रिया नहीं बल्कि वास्तविक सुरक्षा कवच है।
यह फैसला न्यायपालिका को दलित और हाशिए पर खड़े समुदायों के पक्ष में दृढ़ खड़ा करता है।
निष्कर्ष:
सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला SC/ST अधिनियम की मूल भावना को मज़बूत करता है। अग्रिम ज़मानत पर रोक दलित पीड़ितों को डर और दबाव से बचाने का संवैधानिक उपाय है। अदालत ने स्पष्ट कर दिया कि जातिवादी अपराध और चुनावी प्रताड़ना केवल व्यक्तिगत हिंसा नहीं, बल्कि लोकतंत्र और सामाजिक गरिमा पर हमला है।