द हिंदू: 10 नवंबर 2024 को प्रकाशित:
चर्चा में क्यों है?
सुप्रीम कोर्ट, मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना की अध्यक्षता में, पूजा स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम, 1991 की वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर 12 दिसंबर से सुनवाई शुरू करने वाला है। यह सुनवाई भारत में धर्मनिरपेक्षता, सांप्रदायिक सद्भाव और धार्मिक स्थलों से जुड़ी कानूनी चुनौतियों पर बड़ा असर डाल सकती है। मुख्य मुद्दे ग्यानवापी मस्जिद (वाराणसी), शाही ईदगाह मस्जिद (मथुरा) और अन्य स्थानों से जुड़े हैं।
पूजा स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम, 1991:
यह अधिनियम क्या है?
पूजा स्थल अधिनियम, 1991 का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि भारत की स्वतंत्रता के समय, यानी 15 अगस्त 1947 को धार्मिक स्थलों की जो स्थिति थी, उसे यथावत रखा जाए।
मुख्य प्रावधान:
किसी भी धार्मिक स्थल की स्थिति को बदलने के लिए कोई मुकदमा या कार्यवाही नहीं की जा सकती।
अधिनियम में कुछ अपवाद शामिल हैं:
बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि विवाद (जो उस समय चल रहा था)।
प्राचीन स्मारक और पुरातात्विक स्थल एवं अवशेष अधिनियम, 1958 के तहत कवर किए गए स्थल।
वे मामले जो 1991 अधिनियम लागू होने से पहले निपटाए गए थे।
महत्व:
यह अधिनियम धार्मिक विवादों को रोकने के लिए एक सुरक्षा कवच के रूप में काम करता है और ऐतिहासिक मुद्दों को वर्तमान में उठाने से रोकता है।
सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई:
याचिकाकर्ताओं का दावा है कि यह अधिनियम हिंदू और अन्य समुदायों के उन धार्मिक स्थलों पर अधिकार की मांग के अधिकार को बाधित करता है, जिनके बारे में कहा जाता है कि उन्हें मंदिरों के अवशेषों पर बनाया गया था।
याचिकाकर्ताओं का कहना है कि यह अधिनियम ऐतिहासिक अत्याचारों को कानूनी मान्यता देता है और धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकारों का उल्लंघन करता है।
हालांकि, सुप्रीम कोर्ट के अयोध्या निर्णय में इस अधिनियम को भारत की धर्मनिरपेक्षता को संरक्षित करने वाला माना गया था।
अदालत ने कहा कि यह अधिनियम "गैर-पश्चगमन" (non-retrogression) को बढ़ावा देता है, जो धर्मनिरपेक्ष मूल्यों को बनाए रखने के लिए आवश्यक है।
भारत में धर्मनिरपेक्षता:
धर्मनिरपेक्षता की परिभाषा:
भारत में धर्मनिरपेक्षता का अर्थ है कि राज्य सभी धर्मों के साथ समान व्यवहार करता है और किसी एक धर्म का पक्ष नहीं लेता।
चुनौती का प्रभाव:
यदि पूजा स्थल अधिनियम को रद्द या कमजोर किया जाता है, तो यह सांप्रदायिक तनाव को फिर से जन्म दे सकता है और धार्मिक स्थलों पर दावे करने की नई प्रवृत्ति को बढ़ावा देगा।
याचिकाओं में विडंबना:
याचिकाकर्ता यह तर्क देते हुए अधिनियम को चुनौती दे रहे हैं कि यह धर्मनिरपेक्षता के खिलाफ है, जबकि धार्मिक स्थलों को वापस पाने का प्रयास स्वयं धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत को कमजोर करता है।
निष्कर्ष:
सुप्रीम कोर्ट में पूजा स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम, 1991 पर होने वाली सुनवाई भारत में धर्मनिरपेक्षता का भविष्य तय करेगी। यह अधिनियम सांप्रदायिक सद्भाव को बनाए रखने और ऐतिहासिक विवादों को फिर से उठाने से रोकने के लिए एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। सुप्रीम कोर्ट के अयोध्या निर्णय में इस अधिनियम को धर्मनिरपेक्षता का एक आवश्यक हिस्सा माना गया था। इसे कमजोर करने या रद्द करने का निर्णय देश की सामाजिक और सांप्रदायिक संरचना पर गंभीर प्रभाव डाल सकता है।