द हिंदू: 5 जून 2025 को प्रकाशित:
खबर में क्यों?
2023 और 2024 के रिकॉर्ड गर्म वर्षों के बाद जलवायु वैज्ञानिकों और नीति-निर्माताओं के बीच यह सवाल जोर पकड़ रहा है कि क्या वैश्विक औसत तापमान (1.5°C या 2°C) पर अत्यधिक ध्यान केंद्रित करना हमें वास्तविक और तात्कालिक जलवायु आपदाओं से नज़र हटा रहा है।
पृष्ठभूमि:
पेरिस समझौता में 2°C को "सुरक्षित" सीमा माना गया था, जिसे बाद में 1.5°C किया गया।
ये सीमाएँ ठोस वैज्ञानिक आधार पर नहीं बल्कि आर्थिक मॉडलिंग (विलियम नॉर्डहॉस, 1970s) पर आधारित थीं।
2050 के बाद की जलवायु भविष्यवाणियाँ अनिश्चित अनुमानों पर आधारित हैं, जैसे भविष्य की नीतियाँ, जनसंख्या, ऊर्जा स्रोत।
मुख्य मुद्दे:
दीर्घकालिक जलवायु मॉडल की अनिश्चितता: भविष्यवाणियाँ विश्वसनीय नहीं हैं।
औसत तापमान पर अत्यधिक ध्यान: इससे स्थानीय आपदा प्रबंधन और अनुकूलन रणनीतियाँ उपेक्षित हो रही हैं।
गलत फोकस: कई बार जलवायु आपदाओं का दोष ग्लोबल वार्मिंग पर डाल दिया जाता है, पर पूर्वानुमान की सटीकता और मैदानी तैयारी की जांच नहीं होती।
प्रभाव / परिणाम:
स्थानीय खतरे उपेक्षित: बाढ़, सूखा, लू जैसी आपदाओं के लिए पूर्व चेतावनी तंत्र और प्रबंधन में कमी।
जनता में भ्रम: 1.5°C पार होने या न होने को लेकर विभिन्न रिपोर्टों से भ्रम पैदा हो रहा है।
नीतिगत लापरवाही: सरकारें जब तक कोई सीमा पार नहीं होती, तब तक कार्यवाही टाल सकती हैं।
समाधान / आगे की राह:
निकट भविष्य की स्थानीय भविष्यवाणियों (कुछ दिन से लेकर दशकों तक) पर ध्यान केंद्रित करना।
पूर्व चेतावनी तंत्र में निवेश बढ़ाना, खासकर विकासशील देशों में (जैसे UN का Early Warnings for All कार्यक्रम)।
पूर्वानुमानों की समीक्षा करना: क्या वे सही थे और क्या स्थानीय प्रशासन को जानकारी समय पर मिली।
स्थानीय अनुकूलन, बुनियादी ढाँचा सुधार, और आपदा प्रबंधन पर फोकस करना, बजाय किसी खास तापमान सीमा के इंतजार में समय गंवाने के।