2030 तक भारत की कोयले की मांग बढ़कर 1.5 बिलियन टन हो जाएगी

2030 तक भारत की कोयले की मांग बढ़कर 1.5 बिलियन टन हो जाएगी

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स्रोत: डाउन टू अर्थ

चर्चा में क्यों?

नवीकरणीय ऊर्जा के महत्त्व के बावजूद कोयला भारत का प्रमुख ऊर्जा स्रोत बना रहेगा।

देश की ऊर्जा क्षमता की स्थिति:

क्लाइमेट एक्शन ट्रैकर के अनुमानों के अनुसार, जीवाश्म ईंधन देश में स्थापित ऊर्जा क्षमता के आधे से अधिक हिस्सेदारी करता है और वर्ष 2029-2030 तक लगभग 266 गीगावाट तक पहुँचने की उम्मीद है।

वर्ष 2031-32 तक घरेलू कोयले की आवश्यकता वर्ष 2021-2022 के 678 मीट्रिक टन से बढ़कर 1,018.2 मीट्रिक टन होने की उम्मीद है।

इसका मतलब है कि भारत में कोयले की खपत 40% बढ़ जाएगी।

कोयले की मांग बढ़ने का कारण:

  • लोहा और इस्पात उत्पादन में कोयले का उपयोग किया जाता है, दूसरी तरफ इस ईंधन को तुरंत विस्तापित करने हेतु प्रौद्योगिकियाँ नहीं हैं।
  • वर्ष 2022-2024 के दौरान भारत की अर्थव्यवस्था का निरंतर विस्तार4% की वार्षिक औसत सकल घरेलू उत्पाद वृद्धि के साथ आंशिक रूप से कोयले से होने की उम्मीद है।
  • कोल इंडिया के माध्यम से घरेलू कोयला खनन पर भारत का ज़ोर और निजी कंपनियों को कोयला ब्लॉकों की नीलामी से भारत में कोयले का उपयोग बढ़ेगा क्योंकि यह चीन सहित दुनिया के अन्य हिस्सों में स्थिर है।
  • केंद्र सरकार ने निजी क्षेत्र के लिये कोयला खनन को अनुमति दे दी है और सरकार का यह दावा है कि यह सबसे महत्त्वाकांक्षी कोयला क्षेत्र सुधारों में से एक है।
  • सरकार का अनुमान है कि इससे कोयला उत्पादन में दक्षता और प्रतिस्पर्द्धा लाने, निवेश आकर्षित करने तथा सर्वोत्तम तकनीक के आगमन एवं कोयला क्षेत्र में अधिक रोज़गार सृजित करने में मदद मिलेगी।

कोयला:

परिचय:

यह एक प्रकार का जीवाश्म ईंधन है जो तलछटी चट्टानों के रूप में पाया जाता है और इसे अक्सर 'ब्लैक गोल्ड' के रूप में जाना जाता है।

यह सबसे अधिक मात्रा में पाया जाने वाला जीवाश्म ईंधन है। इसका उपयोग घरेलू ईंधन के रूप में लोहा, इस्पात, भाप इंजन जैसे उद्योगों में और बिजली पैदा करने के लिये किया जाता है। कोयले से उत्पन्न बिजली को ‘थर्मल पावर’ कहते हैं।

दुनिया के प्रमुख कोयला उत्पादकों में चीन, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, इंडोनेशिया और भारत शामिल हैं।

भारत में कोयले का वितरण:

गोंडवाना कोयला क्षेत्र (250 मिलियन वर्ष पुराना):

भारत के लगभग 98% कोयला भंडार और कुल कोयला उत्पादन का 99% गोंडवाना क्षेत्रों से प्राप्त होता है।

भारत के धातुकर्म ग्रेड के साथ-साथ बेहतर गुणवत्ता वाला कोयला गोंडवाना क्षेत्र से प्राप्त होता है।

यह दामोदर (झारखंड-पश्चिम बंगाल), महानदी (छत्तीसगढ़-ओडिशा), गोदावरी (महाराष्ट्र) और नर्मदा घाटियों में पाया जाता है।

तृतीयक कोयला क्षेत्र (15-60 मिलियन वर्ष पुराना):

इसमें कार्बन की मात्रा बहुत कम लेकिन नमी और सल्फर की मात्रा भरपूर होती है।

तृतीयक कोयला क्षेत्र मुख्य रूप से अतिरिक्त प्रायद्वीपीय क्षेत्रों तक ही सीमित है।

महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों में असम, मेघालय, नगालैंड, अरुणाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर, पश्चिम बंगाल में दार्जिलिंग हिमालय की तलहटी, राजस्थान, उत्तर प्रदेश और केरल शामिल हैं।

वर्गीकरण:

एन्थ्रेसाइट (80-95% कार्बन सामग्री) जम्मू-कश्मीर में कम मात्रा में पाया जाता है।

बिटुमिनस (60-80% कार्बन सामग्री) झारखंड, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, छत्तीसगढ़ तथा मध्य प्रदेश में पाया जाता है।

लिग्नाइट (40-55% कार्बन सामग्री, उच्च नमी सामग्री) राजस्थान, लखीमपुर (असम) एवं तमिलनाडु में पाया जाता है।

पीट [इसमें 40% से कम कार्बन सामग्री और कार्बनिक पदार्थ (लकड़ी) से कोयले में परिवर्तन के पहले चरण में प्राप्त होता है]।

आगे की राह:

कोयले के बाद की अर्थव्यवस्था की स्थापना की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम है कोयले पर ऊर्जा हेतु निर्भर समाज को फिर से प्रशिक्षित करना।

अक्षय ऊर्जा के क्षेत्र में रोज़गार के अवसरों के लिये अपने पेशे से विस्थापित हुए श्रमिकों को प्रशिक्षित करने की आवश्यकता को पहचानना भी आवश्यक है।

अमेरिकी संघीय परिवर्तन कार्यक्रम जैसे- पेशेवरों के लिये सौर प्रशिक्षण तथा शिक्षा का अवसर प्रदान के लिये भागीदारी, विस्थापित कार्यबल के लिये आर्थिक पुनरोद्धार अनुदान, भारत को अपनी योजनाओं को डिज़ाइन व विकसित करने में मदद कर सकता है।

नीतियों के प्रचार, हरित वित्तपोषण और क्षमता निर्माण हेतु जलवायु परिवर्तन वित्त इकाई द्वारा किये गए निवेश के साथ भारत के लिये स्वच्छ ऊर्जा संक्रमण हेतु विकास वित्तपोषण संस्थानों द्वारा वित्तपोषित किया जा सकता है।

जलवायु परिवर्तन वित्त इकाई जलवायु वित्त मामलों पर वित्त मंत्रालय की नोडल इकाई के रूप में कार्य करने के लिये उत्तरदायी है। यह बहुपक्षीय जलवायु परिवर्तन व्यवस्था के साथ-साथ G20 जैसे अन्य अंतर्राष्ट्रीय मंचों के भीतर जलवायु वित्त संबंधी मुद्दों पर चर्चा में भाग लेती है और साथ ही राष्ट्रीय जलवायु नीति ढाँचे को विश्लेषणात्मक इनपुट भी प्रदान करती है।

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