द हिंदू: 28 जनवरी 2025 को प्रकाशित:
समाचार में क्यों?
यह मुद्दा इसलिए चर्चा में है क्योंकि:
जर्नल ऑफ जियोफिजिकल रिसर्च: बायोजियोसाइंसेज में प्रकाशित एक हालिया अध्ययन ने ओडिशा के झारसुगुड़ा में कोयला खनन की धूल के वनस्पति पर प्रभाव को उजागर किया है।
अध्ययन ने दिखाया है कि कोयले की धूल पौधों के कार्बन अवशोषण को कम कर रही है, जिससे वैश्विक तापवृद्धि (ग्लोबल वार्मिंग) और स्थानीय पारिस्थितिकी तंत्र को नुकसान हो रहा है।
अध्ययन के मुख्य निष्कर्ष:
प्रकाश संश्लेषण पर प्रभाव: खनन धूल से ढके पौधे प्रति वर्ग मीटर 2-3 ग्राम कम कार्बन अवशोषित करते हैं, जिससे वातावरण में CO₂ की मात्रा बढ़ती है।
वाष्पोत्सर्जन पर प्रभाव: धूल द्वारा पत्तियों के रंध्र (stomata) के जाम होने से पानी की वाष्प के निष्कासन में कमी होती है, जिससे पौधे का तापमान नियंत्रण बिगड़ता है।
उपग्रह डेटा का उपयोग: शोधकर्ताओं ने लैंडसैट-8, लैंडसैट-9, सेंटिनल-2 और प्लैनेटस्कोप जैसे उपग्रहों का उपयोग कर धूल के जमाव का आकलन किया, जिसे फील्ड अध्ययन द्वारा सत्यापित किया गया।
समस्या के विभिन्न आयाम:
a. पर्यावरणीय प्रभाव
वैश्विक तापवृद्धि: कार्बन अवशोषण में कमी से वातावरण में CO₂ की मात्रा बढ़ती है।
पारिस्थितिकी तंत्र पर तनाव: रंध्र जाम होने से पौधों की वृद्धि और जीवन प्रभावित होता है, जिससे पारिस्थितिकी तंत्र असंतुलित हो सकता है।
b. सामाजिक-आर्थिक संदर्भ
कोयले पर निर्भरता: भारत में बिजली का 75% उत्पादन कोयला-आधारित संयंत्रों से होता है। यह स्टील, सीमेंट और उर्वरक उद्योगों के लिए भी आवश्यक है।
स्वास्थ्य पर प्रभाव: खनन क्षेत्रों में धूल प्रदूषण न केवल पौधों, बल्कि मानव स्वास्थ्य (विशेषकर श्वसन समस्याओं) पर भी प्रतिकूल प्रभाव डालता है।
c. क्षेत्रीय महत्व
झारसुगुड़ा, जो एक प्रमुख कोयला खनन केंद्र है, प्रतिवर्ष 15 मिलियन टन से अधिक कोयले का उत्पादन करता है। यह क्षेत्र भारत की ऊर्जा सुरक्षा के लिए महत्वपूर्ण है, लेकिन इसके पर्यावरणीय प्रभाव गंभीर हैं।
d. तकनीकी नवाचार
उपग्रह प्रौद्योगिकी का उपयोग: यह अध्ययन प्रदर्शित करता है कि उपग्रह तकनीक बड़े पैमाने पर पर्यावरण प्रदूषण की निगरानी करने का एक प्रभावी तरीका है।
डेटा का सत्यापन: रिमोट सेंसिंग डेटा और फील्ड माप के संयोजन ने परिणामों की विश्वसनीयता को मजबूत किया है।
e. नीतिगत प्रभाव
पहचानी गई चुनौतियां:
धूल प्रदूषण की निगरानी: खनन स्थल से 30 किमी दूर तक धूल फैलने के कारण निगरानी कठिन हो जाती है।
विकास और पर्यावरण का संतुलन: औद्योगिक आवश्यकताओं और पर्यावरणीय संरक्षण के बीच संतुलन बनाना एक बड़ी चुनौती है।
पारिस्थितिकी तंत्र की पुनर्प्राप्ति: वनस्पतियों को हुए दीर्घकालिक नुकसान से पारिस्थितिकी तंत्र में स्थायी क्षति हो सकती है।
भविष्य के प्रभाव
नीति विकास: इस अध्ययन के निष्कर्ष सरकारों को खनन क्षेत्रों में पर्यावरणीय विनियमों को बेहतर बनाने में मदद कर सकते हैं।
वैश्विक प्रासंगिकता: भारत, जो विश्व का दूसरा सबसे बड़ा कोयला उत्पादक है, प्रदूषण कम करने के लिए अपनाए गए उपायों के जरिए अन्य देशों के लिए एक उदाहरण बन सकता है।
सतत विकास: स्वच्छ खनन प्रथाओं को बढ़ावा देना जलवायु परिवर्तन से निपटने और दीर्घकालिक पर्यावरणीय स्थिरता सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक है।
सिफारिशें:
तत्काल उपाय: खनन स्थलों पर जल छिड़काव और पौधों की धूल अवरोधक पंक्तियों का निर्माण।
दीर्घकालिक कार्रवाई:
कोयले पर निर्भरता कम करने के लिए नवीकरणीय ऊर्जा को बढ़ावा देना।
स्वच्छ खनन प्रौद्योगिकियों पर शोध को प्रोत्साहित करना।
पर्यावरणीय क्षति को लेकर जागरूकता अभियान चलाना।
नीतियों का सख्त क्रियान्वयन: खनन क्षेत्रों में वायु गुणवत्ता और वनस्पति प्रबंधन के लिए सख्त विनियम लागू करना।