नरसंहार को कैसे नाम दिया गया और संहिताबद्ध किया गया:

नरसंहार को कैसे नाम दिया गया और संहिताबद्ध किया गया:

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द हिंदू: 17 जुलाई 2025 को प्रकाशित:

 

क्यों है खबरों में?

"नरसंहार" (Genocide) शब्द एक बार फिर अंतर्राष्ट्रीय चर्चा में है, क्योंकि इज़राइल पर गाजा में किए गए कार्यों के लिए नरसंहार के आरोप लगे हैं। संयुक्त राष्ट्र की विशेष प्रतिनिधि फ्रांसेस्का अल्बानीज़ ने इज़राइल पर फिलिस्तीनियों के खिलाफ एक दीर्घकालिक उपनिवेशवादी योजना के तहत नरसंहार करने का आरोप लगाया है। इससे नरसंहार की उत्पत्ति, परिभाषा, वैधानिक मान्यता और नैतिक प्रभावों पर वैश्विक ध्यान केंद्रित हुआ है।

यह वर्ष 2025 में और भी महत्वपूर्ण है क्योंकि Human Rights Watch की रिपोर्ट में ऑस्ट्रेलिया में आदिवासियों के खिलाफ जारी संरचनात्मक हिंसा को उजागर किया गया है — यह दिखाता है कि नरसंहार केवल युद्ध तक सीमित नहीं है, बल्कि यह प्रणालीगत रूप भी ले सकता है।

 

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि:

राफेल लेमकिन और शब्द की उत्पत्ति-

राफेल लेमकिन, एक पोलिश-यहूदी वकील थे, जिन्होंने 1944 में प्रकाशित अपनी पुस्तक Axis Rule in Occupied Europe में "Genocide" शब्द गढ़ा।

वे अर्मेनियाई नरसंहार और यहूदी होलोकॉस्ट से प्रेरित होकर यह शब्द लेकर आए, क्योंकि उस समय राज्यों को ऐसे अत्याचारों के लिए कानूनी रूप से जिम्मेदार ठहराने की कोई व्यवस्था नहीं थी।

यह शब्द बना है:

Greek: Genos (नस्ल या जाति)

Latin: Cide (हत्या)

 

युद्धोत्तर घटनाक्रम:

लेमकिन ने इस शब्द को अंतरराष्ट्रीय कानूनी मान्यता दिलाने की कोशिश की। वह न्यूरेंबर्ग ट्रायल्स में सलाहकार थे, लेकिन अमेरिका और सोवियत संघ की राजनीतिक हिचकिचाहट के कारण यह शब्द पूरी तरह स्वीकार नहीं किया गया।

हालाँकि, 1948 में संयुक्त राष्ट्र के Genocide Convention ने उनके दृष्टिकोण को आंशिक रूप से पूरा किया।

 

कानूनी आयाम:

संयुक्त राष्ट्र नरसंहार सम्मेलन (1948):

नरसंहार को कानूनी रूप से इस रूप में परिभाषित किया गया:

"ऐसे कृत्य जो किसी राष्ट्रीय, जातीय, नस्लीय या धार्मिक समूह को नष्ट करने के उद्देश्य से किए जाते हैं।"

 

पाँच मुख्य कृत्य:

समूह के सदस्यों की हत्या

गंभीर शारीरिक या मानसिक क्षति पहुँचाना

ऐसी स्थितियाँ उत्पन्न करना जिससे समूह का भौतिक विनाश हो

जन्मों को रोकना

बच्चों का जबरन दूसरे समूहों में स्थानांतरण

 

रोम संविधि (2002):

इसने अंतर्राष्ट्रीय आपराधिक न्यायालय (ICC) को नरसंहार के मामलों की सुनवाई का अधिकार दिया।

 

आलोचनाएँ:

राजनीतिक और सामाजिक समूहों को शामिल नहीं करता (जैसे कम्युनिस्ट)

"इरादा" साबित करना मुश्किल होता है — कोई राज्य खुले रूप से नरसंहार का इरादा नहीं घोषित करता

संरचनात्मक और उपनिवेशवादी हिंसा अक्सर परिभाषा से बच निकलती है

 

समकालीन प्रासंगिकता:

गाजा संकट (2024–25):

फिलिस्तीनी नागरिकों पर लगातार हो रहे हमलों ने नरसंहार के आरोपों को जन्म दिया है, जिससे अंतरराष्ट्रीय कानून की सीमाओं और प्रभावशीलता पर बहस छिड़ी है।

 

ऑस्ट्रेलिया (2025 HRW रिपोर्ट):

आदिवासी बच्चों का जबरन स्थानांतरण एक नरसंहार-जैसी प्रथा के रूप में सामने आया है — यह दिखाता है कि नरसंहार केवल हिंसक रूप में ही नहीं, बल्कि संस्थागत और प्रणालीगत भी हो सकता है।

 

दार्शनिक और नैतिक आयाम:

हैना अरेन्ट की अवधारणा: “The Banality of Evil”:

अपनी 1963 की पुस्तक Eichmann in Jerusalem में अरेन्ट ने तर्क दिया कि बुराई के लिए राक्षसी इरादों की आवश्यकता नहीं होती — यह तब पनपती है जब लोग सोचना बंद कर देते हैं और केवल आदेशों का पालन करते हैं।

अडोल्फ आइखमैन, जो होलोकॉस्ट का प्रमुख आयोजक था, वह असाधारण रूप से बुरा नहीं था बल्कि एक आम नौकरशाह था — जो यह दिखाता है कि किस प्रकार बुराई को संस्थागत रूप दिया जा सकता है।

 

जूडिथ बटलर का दृष्टिकोण:

बटलर ने अरेन्ट के विचार को आगे बढ़ाया:

जब समाज नैतिक विचार-विमर्श बंद कर देता है, तो मानवता के खिलाफ अपराध भी सामान्य या न्यायोचित लगने लगते हैं। यानी सोच का क्षरण नरसंहार को “सोचने योग्य” बना देता है।

 

भारत और वैश्विक संदर्भ में निहितार्थ:

नरसंहार की परिभाषा और मुकदमा आज भी कानूनी रूप से सीमित और राजनीतिक रूप से विवादित है।

राज्यों और नागरिकों की यह नैतिक और सामाजिक जिम्मेदारी है कि वे उभरते नरसंहारों के खिलाफ आवाज उठाएं — चाहे वह राज्य प्रोपेगेंडा से छुपा हो या डिजिटल उदासीनता से अनदेखा।

नरसंहार जैसी रणनीतियों को केवल युद्ध तक सीमित न रखकर, उन्हें औपनिवेशिक, कारावास-आधारित, या संरचनात्मक संदर्भों में भी पहचाना जाना चाहिए।

भारत को भले ही प्रत्यक्ष भागीदार न होना हो, लेकिन उसे अपने विदेश नीति में अंतरराष्ट्रीय कानून और मानवाधिकारों के प्रति प्रतिबद्धता का पालन करना चाहिए।

 

प्रमुख निष्कर्ष:

  • नरसंहार केवल जनसंहार नहीं है, बल्कि किसी समूह की पहचान और अस्तित्व को जानबूझकर समाप्त करने की प्रक्रिया है।
  • इसकी कानूनी परिभाषा होलोकॉस्ट के बाद आई, लेकिन इसे लागू करने में अभी भी चयनात्मकता और असमानता है।
  • सोच, चिंतन और नागरिक साहस ही आधुनिक समाजों में नरसंहार को सामान्य होने से रोक सकते हैं।
  • ऐतिहासिक विस्मृति और संस्थागत उदासीनता अत्याचारों को सामान्य स्थिति के रूप में चलने देती है।
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