द हिंदू: 18 सितंबर 2025 को प्रकाशित।
यह समाचारों में क्यों है?
15 सितम्बर 2025 को सुप्रीम कोर्ट ने पूरे वक्फ (संशोधन) अधिनियम, 2025 को निलंबित करने से इनकार कर दिया, लेकिन इसके कुछ विवादास्पद प्रावधानों पर अंतरिम रोक लगाई। इनमें शामिल थे —
(a) ज़िला कलेक्टरों को यह तय करने का अधिकार देना कि कोई संपत्ति सरकारी भूमि है या वक्फ,
(b) वक्फ बनाने के लिए “पाँच वर्षों से इस्लाम का पालन करने” की शर्त का परिचालन, और
(c) वक्फ संस्थाओं में गैर-मुस्लिम सदस्यों की संख्या पर सीमा।
यह आदेश एक ओर अधिनियम के बड़े हिस्से को लागू रहने देता है तो दूसरी ओर कुछ अधिकारों को अंतिम सुनवाई तक सुरक्षित रखता है। इसलिए इसके तत्काल प्रशासनिक और राजनीतिक असर हैं।
संक्षिप्त पृष्ठभूमि (वक्फ अधिनियम और 2025 संशोधन क्या है):
वक्फ: इस्लामी क़ानून के तहत वक्फ का अर्थ है धार्मिक/धर्मार्थ न्यास — ऐसी भूमि या संपत्ति जो स्थायी रूप से धार्मिक या परोपकारी कार्यों के लिए समर्पित हो।
1995 अधिनियम → 2025 संशोधन: संसद ने 1995 के वक्फ अधिनियम में 2025 में संशोधन किया। केंद्र सरकार ने इसे पारदर्शिता बढ़ाने वाला कदम बताया (केंद्रीय डिजिटल पंजीकरण, कड़े स्वामित्व नियम, निगरानी)। आलोचकों का कहना है कि इन संशोधनों से कार्यपालिका का नियंत्रण बढ़ेगा और अल्पसंख्यक समुदाय के मूल प्रबंधन अधिकार खतरे में पड़ेंगे। कई सांसदों, राजनीतिक दलों और सामाजिक संगठनों ने सुप्रीम कोर्ट में इस कानून को चुनौती दी।
चुनौती के मुख्य आधार:
याचिकाकर्ताओं का तर्क था कि संशोधन—
अनुच्छेद 26 (धार्मिक संप्रदायों को अपने धार्मिक कार्यों के प्रबंधन का अधिकार) और अनुच्छेद 30 (अल्पसंख्यक संस्थाओं के प्रबंधन का अधिकार) का उल्लंघन करते हैं।
संपत्ति के अधिकार/शीर्षक निर्धारण के न्यायिक अधिकार को असंवैधानिक रूप से कार्यपालिका (जैसे ज़िला कलेक्टर) को सौंपते हैं।
वक्फ बनाने से पहले किसी व्यक्ति के “पाँच वर्षों तक इस्लाम का पालन करने” की शर्त लगाकर मनमाने ढंग से धर्म की निगरानी (religion-policing) लागू करते हैं।
वक्फ संपत्तियों की ऐतिहासिक सुरक्षा (जैसे “वक्फ बाय यूज़र” का सिद्धांत) को हटाते या बदलते हैं।
सुप्रीम कोर्ट का क्या फैसला रहा — कौन-से प्रावधान रोके गए और कौन लागू रहने दिए गए?
अंतरिम रूप से रोके गए (Stayed):
ज़िला कलेक्टरों को अधिकार देने वाला प्रावधान (जैसे धारा 3C), जिसके तहत वे यह तय कर सकते थे कि संपत्ति सरकारी है या वक्फ — रोक दिया गया, क्योंकि शीर्षक संबंधी विवाद न्यायालयों/अर्ध-न्यायिक संस्थाओं द्वारा तय होने चाहिए।
स्वतः वक्फ स्थिति खत्म करने वाला प्रावधान, जिसमें जांच शुरू होते ही संपत्ति का वक्फ दर्जा खत्म हो जाता — इसे prima facie मनमाना माना गया और रोका गया।
“पाँच वर्षों तक इस्लाम का पालन” वाली शर्त — कोर्ट ने इसे सीधे रद्द नहीं किया, बल्कि तब तक निलंबित कर दिया जब तक इसको लागू करने की औपचारिक नियमावली/प्रक्रिया नहीं बनती। अभी ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है जिससे पालन सिद्ध हो सके।
गैर-मुस्लिम सदस्यता पर सीमा: कोर्ट ने अंतरिम रूप से तय किया कि
केंद्रीय वक्फ परिषद (22 सदस्यीय) में अधिकतम 4 गैर-मुस्लिम सदस्य,
राज्य वक्फ बोर्ड (11 सदस्यीय) में अधिकतम 3 गैर-मुस्लिम सदस्य हो सकते हैं।
CEO का पद अधिमानतः मुस्लिम समुदाय के व्यक्ति के पास होना चाहिए।
लागू रहने वाले (Upheld):
पूरा अधिनियम निलंबित करने से इनकार — यानी कानून को संवैधानिकता की presumption प्राप्त है।
“वक्फ बाय यूज़र” सिद्धांत को भविष्य के लिए हटाना — कोर्ट ने सरकार की यह दलील स्वीकार की कि इसका दुरुपयोग कर सरकारी ज़मीन को वक्फ घोषित किया गया था।
वक्फ संपत्तियों का केंद्रीय डिजिटल पोर्टल पर पंजीकरण अनिवार्य रहेगा।
लिमिटेशन एक्ट, 1963 लागू होगा — यानी वक्फ दावों को समय-सीमा (12 वर्ष आदि) से छूट नहीं मिलेगी।
कोर्ट का कानूनी तर्क (संक्षेप में):
सत्ता पृथक्करण / शीर्षक निर्धारण: संपत्ति शीर्षक से जुड़े फैसले न्यायिक संस्थाओं द्वारा ही होने चाहिए; कार्यपालिका द्वारा बिना सुरक्षा उपायों के रिकॉर्ड बदलना गंभीर संवैधानिक परिणाम ला सकता है।
संवैधानिकता की धारणा: कोर्ट ने कहा कि याचिकाकर्ता यह साबित नहीं कर पाए कि पूरा कानून prima facie असंवैधानिक है। इसलिए केवल कुछ प्रावधानों पर ही रोक लगी।
व्यवहार्यता और नियम-निर्माण: “पाँच वर्ष इस्लाम का पालन” शर्त को रद्द नहीं किया गया, बल्कि तब तक निलंबित रखा गया जब तक इसे लागू करने के लिए उचित, गैर-मनमानी नियमावली नहीं बनती।
अंतरिम आदेश का तात्कालिक/व्यावहारिक असर:
ज़िला कलेक्टर फिलहाल वक्फ स्थिति बदलकर राजस्व रिकॉर्ड नहीं बदल सकते — इससे मुतवल्ली और वक्फ संपत्ति सुरक्षित रहती है।
नई वक्फ घोषणाएँ पाँच वर्ष की शर्त से तुरंत नहीं रुकेंगी — जब तक नियम नहीं बनते।
वक्फ बोर्ड और केंद्र को सदस्यता सीमा (गैर-मुस्लिम) का पालन करना होगा।
केंद्रीय डिजिटल पंजीकरण प्रक्रिया जारी रहेगी — पारदर्शिता और रिकॉर्ड सुधार की दिशा में कदम चलते रहेंगे।
अल्पसंख्यक अधिकार और संवैधानिक कानून पर व्यापक असर:
(a) अल्पसंख्यक संस्थागत स्वायत्तता (अनुच्छेद 26/30)
कोर्ट ने आंशिक सुरक्षा दी — कार्यपालिका की शीर्षक निर्धारण शक्ति पर रोक लगाकर और बाहरी सदस्यता सीमित कर यह स्वीकार किया कि समुदाय के धार्मिक प्रबंधन अधिकार में हस्तक्षेप हो सकता था। लेकिन चूँकि अधिनियम का बड़ा हिस्सा लागू है, भविष्य की नियमावली और न्यायिक फैसले वक्फ संस्थाओं के ढाँचे को बदल सकते हैं।
(b) राज्य निगरानी बनाम समुदाय नियंत्रण:
फैसला संतुलन दिखाता है — राज्य को वक्फ संपत्ति कुप्रबंधन/अतिक्रमण रोकने का अधिकार है, परंतु यह कार्यपालिका को बिना न्यायिक समीक्षा के असीमित शक्ति नहीं दे सकता।
(c) धर्म-निगरानी की चिंता:
“पाँच वर्ष का पालन” प्रावधान गंभीर संवैधानिक प्रश्न उठाता है — इसे लागू करने पर राज्य को धार्मिक आस्था और पालन की जाँच करनी होगी, जो संवैधानिक रूप से संवेदनशील क्षेत्र है। कोर्ट ने इसे नियम बनने तक रोका, पर पूरी तरह असंवैधानिक नहीं माना। आलोचकों का कहना है कि यह निजी धार्मिक विकल्पों में गलत हस्तक्षेप हो सकता है।
राजनीतिक और सामाजिक असर:
इस आदेश पर राजनीतिक प्रतिक्रियाएँ मिश्रित रहीं। केंद्र और सत्तारूढ़ नेताओं ने इसे संसद के कानून को ठहराने वाला कदम बताया, जबकि विपक्षी नेता और मुस्लिम संगठन इसे वक्फ स्वायत्तता की अपर्याप्त सुरक्षा मानते हैं। कई समुदाय संगठनों (जैसे AIMPLB) ने इसे “अधूरा” कहा और उन प्रावधानों पर चिंता जताई जो लागू रह गए। आने वाले समय में नियमावली और क्रियान्वयन को लेकर राजनीतिक बहस और गतिशीलता बनी रहेगी।
आगे की संभावित स्थिति (क्या देखना होगा):
नियम-निर्माण: यदि केंद्र पाँच वर्ष की शर्त लागू करना चाहता है तो उसे स्पष्ट, वस्तुनिष्ठ नियम बनाने होंगे — ये नियम स्वयं चुनौती के दायरे में आ सकते हैं।
पूर्ण सुनवाई (merits hearing): आगे की सुनवाई में संवैधानिकता पर अंतिम फैसला होगा — कोर्ट और प्रावधानों को रद्द, संशोधित या बनाए रख सकता है।
वक्फ ट्रिब्यूनल/हाई कोर्ट: मौजूदा विवाद ट्रिब्यूनल/उच्च न्यायालयों में चलते रहेंगे। अंतरिम आदेश से तत्काल प्रशासनिक हस्तक्षेप रुक गया है।
विधायी/प्रशासनिक प्रतिक्रिया: राजनीतिक दबाव और अदालत के अंतिम फैसले के आधार पर केंद्र नए संशोधन, नियम या नीति स्पष्टीकरण ला सकता है।
निष्कर्ष:
सुप्रीम कोर्ट का 15 सितम्बर 2025 का अंतरिम आदेश एक संतुलित और सावधानीपूर्ण प्रतिक्रिया है। इसने वक्फ शासन सुधारने के विधायी अधिकार को स्वीकार किया लेकिन उन सुधारों पर रोक लगाई जिनसे तत्काल और अपूरणीय क्षति हो सकती थी — विशेषकर संपत्ति रिकॉर्ड बदलने की कार्यपालिका शक्ति और धार्मिक आस्था की जाँच।
अल्पसंख्यक अधिकारों के लिहाज़ से यह आदेश आंशिक सुरक्षा देता है, लेकिन निर्णायक नहीं है। कई संशोधन लागू रह गए हैं और भविष्य में दोबारा परीक्षण हो सकते हैं। वक्फ शासन का अंतिम स्वरूप इस बात पर निर्भर करेगा कि केंद्र किस प्रकार के नियम बनाता है और सुप्रीम कोर्ट अंतिम निर्णय में क्या ठहराता है।
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