सैटेलाइट इंटरनेट कैसे काम करता है?

सैटेलाइट इंटरनेट कैसे काम करता है?

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द हिन्दू: 13 अगस्त 2025 को प्रकाशित।

चर्चा में क्यों है?

एलन मस्क की Starlink जल्द ही भारत में अपनी सेवा शुरू करने वाली है, जो देश के इंटरनेट ढांचे में बड़ा बदलाव लाने वाली है।

सैटेलाइट इंटरनेट अब डिजिटल खाई (digital divide) को पाटने, दूरदराज़ क्षेत्रों में कनेक्टिविटी सुनिश्चित करने और नागरिक व सैन्य क्षमताओं को मजबूत करने के लिए एक महत्वपूर्ण तकनीक के रूप में उभर रही है।

 

पृष्ठभूमि:

पारंपरिक ज़मीनी इंटरनेट नेटवर्क केबल और टावरों पर आधारित होते हैं, जो घनी आबादी वाले शहरी क्षेत्रों में किफायती हैं, लेकिन कम आबादी वाले क्षेत्रों में आर्थिक रूप से अव्यवहारिक हैं।

ये प्राकृतिक आपदाओं (बाढ़, भूकंप) से प्रभावित हो सकते हैं और मोबाइल/दूरस्थ कनेक्टिविटी की मांग को पूरा करने में सीमित हैं।

सैटेलाइट इंटरनेट, जो लो अर्थ ऑर्बिट (LEO), मीडियम अर्थ ऑर्बिट (MEO) और जियोस्टेशनरी ऑर्बिट (GEO) में तैनात होता है, स्थलीय ढांचे से स्वतंत्र होकर वैश्विक कवरेज देता है।

 

सैटेलाइट इंटरनेट की प्रमुख विशेषताएँ:

द्वि-उपयोग प्रकृति – नागरिक और सैन्य दोनों क्षेत्रों में उपयोगी।

वैश्विक कवरेज – भौगोलिक बाधाओं से मुक्त, कहीं भी तैनात किया जा सकता है।

संकट में लचीलापन – आपदाओं और युद्धों में सिद्ध उपयोगिता (जैसे हरिकेन हार्वे, रूस-यूक्रेन युद्ध, सियाचिन में तैनाती)।

तेज़ तैनाती – मोबाइल यूनिट, अस्थायी साइट और ऑफशोर प्लेटफॉर्म के लिए उपयुक्त।

मेगा-कॉन्स्टेलेशन – हजारों छोटे, कम विलंब (low latency) वाले उपग्रह (जैसे Starlink के 7,000+ LEO उपग्रह, लक्ष्य 42,000)।

 

यह कैसे काम करता है:

दो भाग:

  • स्पेस सेगमेंट: कक्षा में स्थित उपग्रह, जो संचार उपकरण (payloads) लेकर चलते हैं।
  • ग्राउंड सेगमेंट: पृथ्वी पर स्थित टर्मिनल और ग्राउंड स्टेशन जो उपग्रहों से संवाद करते हैं।

 

कक्षाएँ और विशेषताएँ:

GEO (35,786 किमी): बड़ी कवरेज, उच्च विलंब (~600 मिलीसेकंड), रियल-टाइम एप्लिकेशन के लिए अनुपयुक्त।

MEO (2,000–35,786 किमी): GEO से कम विलंब, लेकिन वैश्विक कवरेज के लिए कॉन्स्टेलेशन की ज़रूरत।

LEO (<2,000 किमी): बहुत कम विलंब (~20–40 मिलीसेकंड), छोटी कवरेज, मेगा-कॉन्स्टेलेशन आवश्यक।

ऑप्टिकल इंटर-सैटेलाइट लिंक्स उपग्रहों को अंतरिक्ष में सीधे आपस में संवाद करने देते हैं, जिससे ग्राउंड स्टेशन पर निर्भरता घटती है।

 

उपयोग के क्षेत्र:

नागरिक क्षेत्र: ग्रामीण इंटरनेट, टेलीमेडिसिन, प्रिसीजन कृषि, पर्यावरण निगरानी, पर्यटन।

सैन्य क्षेत्र: सुरक्षित संचार, सेना की गतिविधियों का समन्वय, ड्रोन ऑपरेशन, दूरस्थ बेस कनेक्टिविटी।

आपदा प्रबंधन: राहत कार्यों के समन्वय और आपातकालीन कनेक्टिविटी के लिए त्वरित तैनाती।

परिवहन: नेविगेशन, लॉजिस्टिक्स, स्वचालित वाहन सहायता।

सार्वजनिक प्रशासन: स्मार्ट सिटी सेवाएँ, प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली।

 

आर्थिक और रणनीतिक पहलू:

लागत: टर्मिनल लगभग $500, मासिक शुल्क लगभग $50; स्थलीय ब्रॉडबैंड से महंगा, लेकिन दूरदराज़/महत्वपूर्ण क्षेत्रों के लिए आवश्यक।

रणनीतिक महत्व: सैटेलाइट इंटरनेट पर नियंत्रण भूराजनीतिक शक्ति का नया आयाम बन रहा है।

सुरक्षा जोखिम: बिना सीमाओं वाली प्रकृति इसका दुरुपयोग आसान बना सकती है (जैसे भारत में विद्रोही समूहों द्वारा Starlink डिवाइस की तस्करी)।

 

चुनौतियाँ:

नियामकीय: अंतर्राष्ट्रीय स्पेक्ट्रम आवंटन, सीमा-पार डेटा नियम।

सुरक्षा: शत्रुतापूर्ण तत्वों द्वारा दुरुपयोग की रोकथाम।

आर्थिक व्यवहार्यता: उच्च बुनियादी ढांचा निवेश, टर्मिनल लागत।

तकनीकी: निर्बाध उपग्रह हैंडओवर सुनिश्चित करना, मेगा-कॉन्स्टेलेशन से अंतरिक्ष मलबा समस्या।

 

प्रभाव:

भारत के लिए-

  • डिजिटल खाई को पाटने में मदद।
  • सैन्य तैयारी और आपदा लचीलापन में सुधार।
  • कृषि, स्वास्थ्य, लॉजिस्टिक्स जैसे क्षेत्रों को प्रोत्साहन।

 

वैश्विक स्तर पर-

  • राष्ट्रों के बीच तकनीकी प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी।
  • अंतरिक्ष शासन और साइबर सुरक्षा से जुड़े नए मुद्दे सामने आएंगे।
  • इंटरनेट उपलब्धता को वैश्विक मूलभूत सेवा के रूप में परिभाषित किया जा सकता है।

 

आगे की राह:

नीति एकीकरण: सैटेलाइट इंटरनेट को राष्ट्रीय बुनियादी ढांचा और लचीलापन योजनाओं में शामिल करना।

घरेलू क्षमता: भारतीय निजी और सार्वजनिक क्षेत्र को सैटेलाइट इंटरनेट तकनीक में प्रोत्साहित करना।

अंतर्राष्ट्रीय भागीदारी: मेगा-कॉन्स्टेलेशन नियमन के लिए वैश्विक मानकों को आकार देने में सक्रिय भूमिका।

सुरक्षा ढाँचा: दुरुपयोग रोकने और कानूनी पहुंच सुनिश्चित करने के लिए निगरानी प्रणाली विकसित करना।

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