एर्दोगन की नव-ओटोमन विदेश नीति:

एर्दोगन की नव-ओटोमन विदेश नीति:

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द हिंदू: 11 जून 2025 को प्रकाशित:

 

खबर में क्यों है?

तुर्की के राष्ट्रपति रेसेप तैयप एर्दोगन की विदेश नीति एक बार फिर वैश्विक चर्चा में है। वह इस्लामी झुकाव के साथ एक नव-उस्मानी दृष्टिकोण अपना रहे हैं, जिसमें वह मुस्लिम देशों से संबंध मजबूत करने और तुर्की को क्षेत्रीय महाशक्ति के रूप में पुनः स्थापित करने की कोशिश कर रहे हैं, जबकि पश्चिमी देशों के साथ गठबंधन भी बनाए रख रहे हैं।

 

पृष्ठभूमि:

आधुनिक तुर्की की स्थापना 1923 में मुस्तफा कमाल अतातुर्क द्वारा हुई थी, जिसमें धर्मनिरपेक्षता और पश्चिमी गठबंधन पर ज़ोर था।

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद तुर्की नाटो का हिस्सा बन गया और पश्चिमी शिविर में शामिल रहा।

2002 में सत्ता में आई एर्दोगन की एके पार्टी (AKP) ने शुरुआत में इसी नीति को अपनाया, लेकिन अरब स्प्रिंग (2010 के बाद) के समय से एक इस्लामी और नव-उस्मानी रुख अपना लिया।

 

एर्दोगन की विदेश नीति की प्रमुख विशेषताएं:

इस्लामी झुकाव: मुस्लिम ब्रदरहुड (Egypt), HTS (Syria) जैसे इस्लामी समूहों का समर्थन।

क्षेत्रीय विस्तारवाद: कतर, सीरिया, लीबिया, अजरबैजान जैसे देशों में सैन्य व कूटनीतिक प्रभाव बढ़ाया।

यथार्थवाद के साथ संतुलन: नाटो में सदस्यता और पश्चिमी सैन्य ठिकानों के बावजूद इस्लामी नीति अपनाई।

सैन्य मुखरता: अजरबैजान को सैन्य समर्थन, ड्रोन निर्यात, और कुर्द क्षेत्रों पर रणनीतिक नियंत्रण।

भू-राजनीतिक पुनर्स्थापन: खुद को मध्य पूर्व और मुस्लिम दुनिया का शक्ति केंद्र बनाने का प्रयास।

 

रणनीतिक उपलब्धियां:

सीरिया: HTS के माध्यम से दमिश्क पर कब्जा, जिससे तुर्की की पकड़ मजबूत हुई।

काकेशस: अजरबैजान के समर्थन से अर्मेनिया पर विजय प्राप्त की।

नाटो संतुलन: स्वीडन और फिनलैंड की सदस्यता पर समर्थन देकर अमेरिका से रियायतें लीं।

लीबिया: त्रिपोली सरकार का समर्थन कर उत्तर अफ्रीका में प्रभाव बढ़ाया।

खाड़ी क्षेत्र: कतर के साथ मजबूत गठबंधन, साथ ही सऊदी और यूएई से संबंधों में सुधार।

 

आंतरिक प्रभाव:

शक्ति का केंद्रीकरण: राष्ट्रपति प्रणाली लागू कर एर्दोगन के हाथों में पूर्ण नियंत्रण।

लोकतंत्र का ह्रास: स्वतंत्र मीडिया, विपक्षी नेता (जैसे एकरेम इमामोग्लू) पर दमन।

आर्थिक संकट: मुद्रास्फीति, तुर्की लीरा का अवमूल्यन, बेरोजगारी जैसी समस्याएं गंभीर।

 

प्रमुख मुद्दे और आलोचना:

तानाशाही की ओर झुकाव: तुर्की को इस्लामी अधिनायकवादी राष्ट्र बनने का खतरा।

परस्पर विरोधी गठबंधनों का जोखिम: पश्चिम और रूस दोनों को संतुलित करना कठिन।

स्थिरता की कमी: सीरिया और लीबिया में अस्थिरता अभी भी बनी हुई है।

आर्थिक कमजोरी: विदेश नीति की सफलता को अर्थव्यवस्था कमज़ोर कर सकती है।

 

व्यापक प्रभाव:

तुर्की आज बहु-दिशात्मक रणनीति के तहत, धर्म, इतिहास और भू-राजनीति को साधन बना कर क्षेत्रीय शक्ति के रूप में उभरना चाहता है।

इससे मध्य पूर्व, नाटो, यूरेशिया और दक्षिण एशिया में संतुलन प्रभावित हो रहा है।

पाकिस्तान का समर्थन उसे दक्षिण एशिया में सीमित प्रभाव देता है, पर वह अभी भी मामूली खिलाड़ी है।

 

निष्कर्ष:

एर्दोगन की विदेश नीति एक महत्वाकांक्षी प्रयास है जिसमें वह ओटोमन युग की प्रतिष्ठा को पुनः प्राप्त करना चाहते हैं, लेकिन यह तभी टिकाऊ होगी जब आंतरिक लोकतंत्र और अर्थव्यवस्था मजबूत हो और विदेश नीति में निरंतरता बनी रहे।

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