द हिंदू: 21 अप्रैल 2025 को प्रकाशित:
यह खबरों में क्यों है?
8 अप्रैल 2025 को सुप्रीम कोर्ट ने तमिलनाडु सरकार बनाम राज्यपाल के बीच चल रहे लंबे विवाद में ऐतिहासिक फैसला सुनाया। यह फैसला सिर्फ तमिलनाडु तक सीमित नहीं है, बल्कि देशभर में कई राज्यों में केंद्र-राज्य संबंधों और राज्यपाल की भूमिका पर असर डालने वाला है।
मामले की पृष्ठभूमि-
तमिलनाडु के राज्यपाल ने राज्य विधानसभा द्वारा पारित 10 विधेयकों पर कोई कार्यवाही नहीं की — न मंजूरी दी, न वापस लौटाया और न ही राष्ट्रपति को भेजा।
इसे कोर्ट ने 'पॉकेट वीटो' जैसा कहा, जो कि संविधान में मान्य नहीं है।
कोर्ट के कहने पर राज्यपाल ने बिल वापस विधानसभा को भेजे। जब दोबारा बिल पास होकर राज्यपाल के पास पहुंचे, तब उन्होंने उन्हें राष्ट्रपति को भेज दिया।
राष्ट्रपति ने:
1 बिल को मंजूरी दी
7 को नामंजूर किया
2 पर निर्णय लंबित है
मुख्य संवैधानिक प्रश्न
क्या राज्यपाल विधेयकों पर अनिश्चितकाल तक कोई निर्णय टाल सकते हैं?
क्या बिल को वापस करके फिर राष्ट्रपति को भेजा जा सकता है?
क्या राज्यपाल या राष्ट्रपति को निर्णय लेने की कोई समय-सीमा है?
क्या सुप्रीम कोर्ट लंबित बिलों को स्वयं कानून घोषित कर सकता है?
सुप्रीम कोर्ट का फैसला
महत्व और प्रभाव-
यह मामला सिर्फ तमिलनाडु तक सीमित नहीं, बल्कि पश्चिम बंगाल, केरल, पंजाब, तेलंगाना जैसे राज्यों में भी राज्यपाल और विपक्षी सरकारों के बीच टकराव का हिस्सा रहा है।
यह फैसला संविधान की संघीय संरचना को मजबूत करता है।
राज्य विधानसभाओं की स्वायत्तता को समर्थन देता है।
फैसले की आलोचना-
कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि कोर्ट ने संविधान में न होकर भी समय-सीमा निर्धारित की, जो न्यायपालिका का अतिक्रमण है।
कोर्ट ने बिल को "कानून" घोषित करके विधायी प्रक्रिया में हस्तक्षेप किया है।
फैसले के पक्ष में तर्क-
यह न्यायपालिका का आवश्यक हस्तक्षेप था, क्योंकि राज्यपाल की निष्क्रियता संघीय व्यवस्था को क्षति पहुँचा रही थी।
यह फैसला जनता की चुनी हुई सरकार के अधिकारों की रक्षा करता है।
संविधान की संरचनात्मक समस्या-
संविधान में राज्यपाल की भूमिका स्पष्ट रूप से सीमांकित नहीं की गई है।
ब्रिटिश राज से लिया गया "राज्यपाल मॉडल" अब भी कहीं-कहीं केन्द्र की शक्ति का औजार बन जाता है।
संविधान निर्माताओं ने यह उम्मीद की थी कि सभी संवैधानिक पदाधिकारी "अच्छे विश्वास" में कार्य करेंगे — पर आज की राजनीति में यह भरोसा टिकता नहीं।
आगे की राह-
सुप्रीम कोर्ट का फैसला एक 'टेम्परेरी समाधान' है — संविधान में गहराई से बदलाव की जरूरत है।
यह बहस शुरू होनी चाहिए कि क्या 2025 में हमें राज्यपाल की संस्था की आवश्यकता है?
राज्यपाल की नियुक्ति, भूमिका, समय-सीमा आदि पर कानूनी स्पष्टता आवश्यक है।
निष्कर्ष-
यह फैसला सिर्फ एक अदालती निर्णय नहीं, बल्कि संविधान की आत्मा — संघवाद, लोकतंत्र और जन प्रतिनिधित्व की रक्षा है। हालांकि, यह स्थायी समाधान नहीं है, लेकिन संवैधानिक चूक के घाव पर एक आवश्यक मरहम ज़रूर है।
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