स्रोत: द इंडियन एक्सप्रेस
संदर्भ: गृह मंत्रालय (एमएचए) के अनुसार, पिछले पांच वर्षों में गुजरात (80) में हिरासत में सबसे अधिक मौतें हुई हैं।
अर्थ:
जब एक कथित अभियुक्त पर अदालत से ऐसे अभियोजन के आदेश प्राप्त करने से पहले मुकदमा चलाया जाता है या उसे मार दिया जाता है, तो उसे हिरासत में हिंसा/मौत के रूप में जाना जाता है।
यह भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार), 21 (जीवन का अधिकार), और 22 (कुछ मामलों में गिरफ्तारी और हिरासत के खिलाफ संरक्षण) के तहत एक नागरिक के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है।
हिरासत में मौत के कारण:
हिरासत में होने वाली मौतों को नियंत्रित करने/निषेध करने वाले कानून:
हिरासत में होने वाली मौतों को रोकने के लिए दिशानिर्देश:
केंद्र सरकार: समय-समय पर सलाह जारी करती है और मानवाधिकार अधिनियम (पीएचआर), 1993 का संरक्षण करती है, जो सार्वजनिक कर्मचारियों द्वारा कथित मानवाधिकारों के उल्लंघन को देखने के लिए एनएचआरसी और एसएचआरसी की स्थापना को निर्धारित करती है।
एनएचआरसी:
पुलिस कार्रवाई के दौरान हुई मौतों के सभी मामलों की मजिस्ट्रियल जांच (3 महीने के भीतर)।
दोषी अधिकारियों के विरुद्ध त्वरित कार्यवाही एवं अनुशासनात्मक कार्यवाही।
बारी से पहले पदोन्नति आदि से इनकार।
एससी (पीयूसीएल बनाम महाराष्ट्र राज्य मामले 2014 में): पुलिस मुठभेड़ों के दौरान मौत के मामलों में गहन, प्रभावी और स्वतंत्र जांच के लिए 16 सूत्रीय दिशानिर्देश निर्धारित किए।
इनमें से कुछ हैं - एक स्वतंत्र जाँच > अनुशासनात्मक कार्रवाई > पीड़ित के आश्रितों को दिया जाने वाला मुआवज़ा।
उपाय :
पुलिस (कानून आयोग) पर सबूत की जिम्मेदारी डालने के लिए साक्ष्य अधिनियम में संशोधन करना चाहिए।
हिरासत में व्यक्तियों के मानवाधिकारों की बेहतर समझ के लिए लोक सेवकों (एनएचआरसी की कार्यशालाओं और सेमिनारों के माध्यम से) को संवेदनशील बनाना चाहिए।
निष्कर्ष: भारतीय संविधान की 7वीं अनुसूची के अनुसार पुलिस और सार्वजनिक व्यवस्था राज्य के विषय हैं। इसलिए, हिरासत में व्यक्तियों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए मुख्य रूप से संबंधित राज्य सरकार की जिम्मेदारी है।
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