न्यायालयों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा करनी चाहिए, न कि उसका विनियमन

न्यायालयों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा करनी चाहिए, न कि उसका विनियमन

Static GK   /   न्यायालयों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा करनी चाहिए, न कि उसका विनियमन

Change Language English Hindi

द हिंदू : प्रकाशित – 15 दिसंबर 2025

 

क्यों चर्चा में है?

हाल ही में रणवीर अल्लाहबादिया बनाम भारत संघ मामले की सुनवाई के दौरान, सर्वोच्च न्यायालय ने अनियमित ऑनलाइन सामग्री को लेकर चिंता व्यक्त की और डिजिटल कंटेंट के विनियमन हेतु तटस्थ स्वायत्त निकायों के गठन का सुझाव दिया। न्यायालय ने मौजूदा स्व-नियामक तंत्रों की प्रभावशीलता पर भी सवाल उठाए तथा सरकार से ड्राफ्ट नियामक दिशानिर्देश सार्वजनिक परामर्श हेतु जारी करने को कहा। इस हस्तक्षेप से न्यायिक अतिक्रमण, पूर्व प्रतिबंध (Prior Restraint) और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के संवैधानिक सीमाओं पर बहस तेज हो गई है।

 

अभिव्यक्ति के विनियमन हेतु मौजूदा कानूनी ढांचा

भारत में अभिव्यक्ति के विनियमन हेतु एक व्यापक वैधानिक ढांचा पहले से मौजूद हैः

  • सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 साइबर अपराधों जैसे हैकिंग, निजता का उल्लंघन, साइबर आतंकवाद एवं अश्लीलता से संबंधित प्रावधान करता है।
  • भारतीय न्याय संहिता, 2023 अश्लीलता और धार्मिक भावनाओं को आहत करने से जुड़े अपराधों से संबंधित है।
  • सूचना प्रौद्योगिकी नियम, 2021 मध्यस्थ दिशानिर्देश और डिजिटल मीडिया आचार संहिता निर्धारित करते हैं, जिनमें ऑनलाइन सामग्री हेतु शिकायत निवारण तंत्र शामिल है।

 

एक प्रमुख चिंता यह है कि आईटी नियम, 2021 प्रकाशकों से “यथोचित सावधानी” बरतने की अपेक्षा कर पूर्व प्रतिबंध के तत्व लागू करते हैं। ऐसे अस्पष्ट मानदंड अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकते हैं। अनुराधा भसीन बनाम भारत संघ (2020) में सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया था कि अभिव्यक्ति पर लगाए गए प्रतिबंध अनुपातिकता परीक्षण पर खरे उतरने चाहिए।

 

न्यायिक अतिक्रमण और कार्यक्षेत्र का विस्तार

  • वर्तमान मामला न्यायिक हस्तक्षेप के क्रमिक विस्तार को दर्शाता है। प्रारंभ में यह कथित अश्लील सामग्री निर्माताओं के विरुद्ध दर्ज एफआईआर तक सीमित था, किंतु मार्च 2025 में इसका दायरा बढ़ाकर आपत्तिजनक प्रसारण के व्यापक विनियमन तक कर दिया गया। नवंबर 2025 में न्यायालय ने इससे आगे बढ़कर स्वायत्त नियामक निकायों का सुझाव दिया। इससे शक्ति पृथक्करण सिद्धांत के उल्लंघन की आशंका उत्पन्न होती है।
  • कॉमन कॉज बनाम भारत संघ (2008) में सर्वोच्च न्यायालय ने चेताया था कि न्यायालय विधायी कार्य अपने हाथ में नहीं ले सकते। इसके अतिरिक्त, डिजिटल कंटेंट विनियमन जैसे तकनीकी विषयों में न्यायालयों के पास विशेषज्ञता का अभाव भी रहता है।

 

अनुच्छेद 19 के अंतर्गत संवैधानिक सीमाएं

  • अनुच्छेद 19(1)(क) अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की गारंटी देता है, जबकि अनुच्छेद 19(2) केवल सीमित एवं पूर्णतः निर्दिष्ट आधारों—जैसे भारत की संप्रभुता एवं अखंडता, राज्य की सुरक्षा, लोक व्यवस्था, शिष्टाचार एवं नैतिकता, न्यायालय की अवमानना, मानहानि तथा अपराध के लिए उकसावे—पर ही प्रतिबंध की अनुमति देता है। इसके अतिरिक्त कोई नया आधार जोड़ा नहीं जा सकता।
  • कौशल किशोर बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2023) में पांच-न्यायाधीशों की पीठ ने निर्णय दिया कि अनुच्छेद 19(2) के आधार सम्पूर्ण (Exhaustive) हैं।
  • सहारा इंडिया रियल एस्टेट कॉरपोरेशन (2012) में न्यायालय ने कहा कि पूर्व सेंसरशिप असंवैधानिक है और प्रकाशन पर स्थगन आदेश केवल अंतिम उपाय के रूप में ही दिया जा सकता है।

 

वैश्विक तुलनात्मक परिप्रेक्ष्य

  • लोकतांत्रिक देश ऑनलाइन सामग्री का विनियमन समग्र पूर्व सेंसरशिप के बिना करते हैं। यूरोपीय संघ का डिजिटल सर्विसेज़ एक्ट मंचों की जवाबदेही और प्रकाशन पश्चात हटाने की व्यवस्था पर केंद्रित है।
  • जर्मनी का नेटवर्क प्रवर्तन अधिनियम अवैध सामग्री को समयबद्ध रूप से हटाने और दंड का प्रावधान करता है।
  • यूके का ऑनलाइन सेफ्टी एक्ट और ऑस्ट्रेलिया का ऑनलाइन सेफ्टी एक्ट हानि-आधारित विनियमन अपनाते हैं।
  • इसके विपरीत, चीन और रूस जैसे सत्तावादी शासन निगरानी और पूर्व सेंसरशिप पर निर्भर रहते हैं।

 

भारतीय न्यायिक परंपरा में आत्म-संयम

भारतीय संवैधानिक न्यायशास्त्र न्यायिक आत्म-संयम पर बल देता है। आदर्श हाउसिंग सोसायटी मामला (2018) में सर्वोच्च न्यायालय ने फिल्मों के डिस्क्लेमर संबंधी निर्देश देने से इंकार करते हुए इसे वैधानिक प्राधिकरणों का क्षेत्र माना। संविधान सभा की बहसें भी दर्शाती हैं कि न्यायालयों को प्रतिबंधों की तर्कसंगतता का अंतिम निर्णायक, न कि विधि निर्माता माना गया था। पंडित ठाकुर दास भार्गव ने स्पष्ट किया था कि न्यायपालिका का कार्य प्रतिबंधों की वैधता की समीक्षा करना है, न कि उन्हें गढ़ना।

 

अभिव्यक्ति के न्यायिक विनियमन के जोखिम

अत्यधिक न्यायिक हस्तक्षेप से पूर्व प्रतिबंध, मामलों से नीति निर्माण की ओर बढ़ता हुआ मिशन विस्तार, तथा सत्तावादी दुरुपयोग की संभावनाएँ बढ़ सकती हैं। साथ ही, डिजिटल मंचों की जटिलताओं को समझने में न्यायालयों को तकनीकी सीमाओं का सामना करना पड़ सकता है। संवैधानिक विद्वान डेविड लैंडाउ ने चेतावनी दी है कि जब न्यायालय अपने संवैधानिक दायरे से बाहर जाते हैं, तो लोकतांत्रिक क्षरण संभव हो जाता है।

 

आगे की राह

  • डिजिटल लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा हेतु संतुलित दृष्टिकोण आवश्यक है।
  • न्यायालयों को संवैधानिक निर्णायक (Umpire) की भूमिका निभानी चाहिए, न कि नियामक की।
  • सामग्री विनियमन से जुड़े कानून संसद द्वारा लोकतांत्रिक बहस के माध्यम से बनाए जाने चाहिए।
  • प्रकाशन पश्चात जवाबदेही, सामग्री हटाने और दंड पर आधारित मॉडल को प्राथमिकता दी जानी चाहिए, न कि पूर्व सेंसरशिप को।
  • उद्योग-आधारित स्व-नियमन और स्वतंत्र शिकायत निवारण तंत्र को मजबूत किया जाना चाहिए।
  • कृत्रिम बुद्धिमत्ता आधारित मॉडरेशन को मानव निगरानी के साथ अपनाया जा सकता है, जिससे संवैधानिक स्वतंत्रताओं से समझौता न हो।

 

निष्कर्ष

न्यायालय अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की सर्वश्रेष्ठ रक्षा तब करते हैं, जब वे यह सुनिश्चित करते हैं कि सभी प्रतिबंध अनुच्छेद 19(2) के अनुरूप हों। न्यायिक आत्म-संयम, विधायी उत्तरदायित्व और लोकतांत्रिक जवाबदेही—ये तीनों मिलकर डिजिटल युग में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के सबसे मजबूत संरक्षक हैं।f

Other Post's
  • भू प्रेक्षण उपग्रह EOS-04

    Read More
  • इराक में कम उम्र में विवाह की अनुमति देने वाले विधेयक की समीक्षा

    Read More
  • वैश्विक निवेशकों को फिलहाल नई जापानी सरकार पसंद आ रही है:

    Read More
  • भारत वन राज्य रिपोर्ट-2021

    Read More
  • चुनावी सुधार क्यों ज़रूरी हैं?

    Read More