द हिंदू: 21 नवंबर 2025 को प्रकाशित।
चर्चा में क्यों?
हाल ही में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने राज्यपालों और राष्ट्रपति के विधेयकों को मंजूरी देने के अधिकार और सीमाओं पर एक अहम फैसला सुनाया। यह फैसला राज्य विधानसभाओं और संवैधानिक अधिकारियों के बीच शक्ति संतुलन को स्पष्ट करता है और यह तय करता है कि राज्यपाल और राष्ट्रपति संवैधानिक विवेकाधिकार का उपयोग कैसे कर सकते हैं और कब न्यायालय हस्तक्षेप कर सकती है।
मुख्य बिंदु
सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद 200 और 201 के तहत राज्यपालों और राष्ट्रपति के अधिकारों को स्पष्ट किया। कोर्ट ने कहा कि राज्यपाल के पास केवल तीन विकल्प हैं:
- विधेयक को मंजूरी देना (Assent Grant करना)
- विधेयक को टिप्पणियों के साथ विधानसभा को वापस भेजना (Withhold and Return with Comments)
- विधेयक को राष्ट्रपति के पास भेजना (Reserve for President’s Consideration)
कोर्ट ने स्पष्ट किया कि राज्यपाल विधेयक को अनिश्चितकाल तक रोक नहीं सकते, और “withholding assent simpliciter” यानी बिना किसी कार्रवाई के बस रोक लगाने की प्रक्रिया संवैधानिक रूप से असंवैधानिक है। साथ ही कोर्ट ने यह भी कहा कि ‘मान्य स्वीकृति’ (Deemed Assent) की अवधारणा असंवैधानिक है। इसका मतलब है कि किसी निश्चित अवधि में निर्णय नहीं होने पर विधेयक को स्वतः मंजूर मानना संविधान के खिलाफ है।
मुख्य निष्कर्ष
- अनिश्चितकालीन विलंब असंवैधानिक: राज्यपाल किसी भी विधेयक पर अनिश्चितकाल तक निर्णय टाल नहीं सकते। ऐसा करने से संघीय ढांचे और लोकतांत्रिक प्रक्रिया को नुकसान पहुँचता है।
- केवल तीन विकल्प: अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल के पास केवल तीन विकल्प हैं, कोई चौथा विकल्प नहीं है। इससे यह स्पष्ट हो गया कि राज्यपाल का विवेकाधिकार सीमित है।
- मान्य स्वीकृति (Deemed Assent) असंवैधानिक: यदि किसी समयसीमा में निर्णय नहीं लिया गया, तो विधेयक को स्वचालित रूप से मंजूरी देना संविधान के खिलाफ है।
- न्यायालय द्वारा समयसीमा निर्धारित नहीं की जा सकती: अनुच्छेद 200 और 201 में लचीलापन (elasticity) निहित है, इसलिए सुप्रीम कोर्ट राज्यपाल या राष्ट्रपति के लिए कोई तय समयसीमा नहीं निर्धारित कर सकती।
- सीमित न्यायिक हस्तक्षेप संभव: यदि विलंब लंबा और अनिर्दिष्ट (prolonged unexplained) हो, तो कोर्ट सीमित आदेश (limited mandamus) जारी कर सकती है। इसका अर्थ है कि न्यायालय राज्यपाल या राष्ट्रपति के विवेकाधिकार के गुणात्मक निर्णय में हस्तक्षेप नहीं कर सकती, केवल प्रक्रिया को सुचारू बनाने में मदद कर सकती है।
- राज्यपाल को कारण बताना अनिवार्य: जब राज्यपाल विधेयक को रोकते या विधानसभा को वापस भेजते हैं, उन्हें स्पष्ट और लिखित कारण देना अनिवार्य होगा। इससे पारदर्शिता और जवाबदेही बढ़ती है।
- राष्ट्रपति के अधिकार भी स्पष्ट किए गए: अनुच्छेद 201 के तहत राष्ट्रपति के फैसलों पर भी कोर्ट द्वारा कोई निश्चित समयसीमा नहीं तय की जा सकती।
- न्यायालय की सीमित भूमिका: कोर्ट स्वतंत्र विवेकाधिकार के फैसले में हस्तक्षेप नहीं कर सकती। केवल अनिर्दिष्ट और लंबी देरी की स्थिति में सीमित आदेश जारी किया जा सकता है। इसका मतलब है कि कार्यपालिका की संवैधानिक भूमिका को न्यायालय नहीं बदल सकती।
आगे की राह
राज्य सरकारें अब उन विलंबित विधेयकों पर कार्रवाई की मांग कर सकती हैं, जिन पर लंबे समय तक निर्णय नहीं लिया गया। न्यायालय केवल उन मामलों में सीमित हस्तक्षेप कर सकती है, जहाँ राजनीतिक कारणों से बिल पर अनावश्यक विलंब किया जा रहा हो। यह फैसला सभी राज्यों के लिए मार्गदर्शक साबित होगा और विधानमंडल की स्वतंत्रता को और मजबूत करेगा। इसके अलावा, अब राज्यपालों के लिए यह अनिवार्य होगा कि वे किसी बिल को रोकने या वापस करने के निर्णय के कारण लिखित रूप में प्रस्तुत करें, जिससे पारदर्शिता और जवाबदेही में वृद्धि होगी।