द हिंदू: 4 जुलाई 2025 को प्रकाशित:
क्यों चर्चा में है:
हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने नंदिनी सुंदर व अन्य बनाम छत्तीसगढ़ राज्य मामले में रिट और अवमानना याचिका को खारिज करते हुए स्पष्ट किया कि यदि किसी राज्य द्वारा कोर्ट के आदेश के बाद कोई कानून पारित किया जाता है, तो उसे कोर्ट की अवमानना नहीं कहा जा सकता।
पृष्ठभूमि:
5 जुलाई 2011 को सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया था कि:
छत्तीसगढ़ राज्य को विशेष पुलिस अधिकारियों (SPOs) को माओवादी गतिविधियों के विरुद्ध किसी भी रूप में प्रयोग करना बंद करना होगा।
सभी SPOs से हथियार वापस लेने होंगे।
राज्य को सलवा जुडूम और कोया कमांडो जैसे संगठनों की गतिविधियों पर प्रतिबंध लगाने के लिए कदम उठाने होंगे।
केंद्र सरकार को भी ऐसे SPOs की भर्ती में कोई आर्थिक सहायता न देने का निर्देश दिया गया था।
कोर्ट ने कहा था कि SPOs की नियुक्ति अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार) और अनुच्छेद 21 (जीवन का अधिकार) का उल्लंघन है।
मुख्य मुद्दे:
सुप्रीम कोर्ट का निर्णय और स्पष्टता:
1- अवमानना नहीं हुई:
कोर्ट ने माना कि राज्य ने 2011 के सभी आदेशों का पालन किया है, और आवश्यक रिपोर्ट भी दाखिल की गई हैं।
2- विधानमंडल की स्वतंत्र शक्ति:
कोर्ट ने कहा कि राज्य विधानमंडल को पूर्ण अधिकार है कि वह कोई भी कानून बनाए, जब तक वह:
संविधान का उल्लंघन नहीं करता, या
उसके अधिकार क्षेत्र से बाहर नहीं है।
3- शक्ति पृथक्करण सिद्धांत की पुष्टि:
विधानमंडल को किसी न्यायिक निर्णय का आधार हटाने या पहले निरस्त किए गए कानून को फिर से वैध बनाने का अधिकार है।
जब तक कोई अधिनियम संवैधानिक प्रावधानों का उल्लंघन न करे, तब तक उसे अवमानना नहीं माना जा सकता।
4- महत्वपूर्ण संदर्भ:
इंडियन एल्युमिनियम बनाम केरल राज्य (1996) में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि संविधान द्वारा स्थापित न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका के बीच संतुलन बनाए रखना आवश्यक है।
निष्कर्ष:
1- सुप्रीम कोर्ट राज्य को कानून बनाने से नहीं रोक सकता, जब तक कि वह कानून:
2- 2011 का निर्णय एक ऐतिहासिक मानवाधिकार संरक्षण की मिसाल बना, लेकिन राज्य को कानून संशोधित कर समस्या के समाधान का अधिकार है।
3- अवमानना याचिका को खारिज करना संविधान के तहत विधानमंडल की गरिमा और शक्तियों को मान्यता देता है।