क्या राष्ट्रपति का संदर्भ किसी फैसले को बदल सकता है?

क्या राष्ट्रपति का संदर्भ किसी फैसले को बदल सकता है?

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द हिंदू: 24 जुलाई 2025 को प्रकाशित:

 

समाचार में क्यों?

22 जुलाई 2025 को, सर्वोच्च न्यायालय (SC) ने संविधान के अनुच्छेद 143(1) के तहत एक राष्ट्रपतीय संदर्भ (Presidential Reference) पर केंद्र सरकार और राज्यों को नोटिस जारी किया। यह संदर्भ राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू द्वारा SC से यह सलाह माँगने के लिए किया गया था कि क्या राष्ट्रपति और राज्यपालों को विधायिका द्वारा पारित विधेयकों पर समयसीमा के भीतर कार्रवाई करने के लिए न्यायालय द्वारा बाध्य किया जा सकता है। यह इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि 8 अप्रैल को SC ने एक निर्णय में राज्यपालों और राष्ट्रपति के लिए विधेयकों के निपटान हेतु समयबद्ध दायित्व तय किए थे।

 

पृष्ठभूमि:

यह मामला तमिलनाडु की उस याचिका से उत्पन्न हुआ था, जिसमें राज्यपाल आर.एन. रवि द्वारा 10 विधेयकों पर स्वीकृति देने में देरी को चुनौती दी गई थी। 8 अप्रैल 2025 को SC ने इस देरी को असंवैधानिक करार दिया और राज्यपालों व राष्ट्रपति के लिए न्यायिक रूप से बाध्यकारी समयसीमाएं तय कीं। राष्ट्रपतीय संदर्भ में यह सवाल उठाया गया कि क्या अदालतें संवैधानिक पदाधिकारियों के लिए समयसीमा तय कर सकती हैं?

 

संवैधानिक प्रावधान: अनुच्छेद 143:

अनुच्छेद 143(1) राष्ट्रपति को किसी सार्वजनिक महत्व के तथ्य या कानून के प्रश्न पर सर्वोच्च न्यायालय से परामर्शात्मक मत (advisory opinion) माँगने की अनुमति देता है। SC चाहे तो उत्तर दे सकता है, यह अनिवार्य नहीं है। SC केवल वही प्रश्नों का उत्तर देता है जो उसे भेजे जाते हैं, वह इससे बाहर नहीं जा सकता।

 

क्या राष्ट्रपतीय संदर्भ किसी निर्णय को बदल सकता है?

संक्षिप्त उत्तर: नहीं। राष्ट्रपतीय संदर्भ सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय (जो न्यायिक अधिकार क्षेत्र में आता है) को पलट या पुनर्विचार नहीं कर सकता। 8 अप्रैल का निर्णय अनुच्छेद 141 के अंतर्गत बाध्यकारी है, जबकि अनुच्छेद 143 के तहत दी गई सलाह बाध्यकारी नहीं होती।

 

कानूनी तर्क:

कावेरी जल विवाद ट्रिब्यूनल केस में SC ने कहा कि अनुच्छेद 143 का उपयोग पहले से तय कानूनी सवालों को दोबारा खोलने के लिए नहीं किया जा सकता। हालांकि, In re: Natural Resources Allocation (2012) केस में SC ने कहा कि यह किसी कानूनी मत को स्पष्ट या पुनःसंरचित कर सकता है, बशर्ते मूल निर्णय की आत्मा (ratio) न बदले।

 

पूर्व उदाहरण:

आर.के. गर्ग (1981): SC की परामर्शात्मक राय को प्रभावशाली प्राधिकरण के रूप में माना गया, और कभी-कभी इसे मिसाल के रूप में उद्धृत भी किया गया।

1998 कॉलेजियम केस संदर्भ: SC ने अपने पूर्व निर्णय के कुछ पहलुओं में संशोधन किया, लेकिन उसे पलटा नहीं।

 

क्या परामर्शात्मक राय बाध्यकारी होती है?

नहीं। अनुच्छेद 143 के तहत दी गई परामर्श राय बाध्यकारी नहीं होती। हालांकि, उनका संवैधानिक व्याख्या के संदर्भ में अत्यधिक प्रभाव होता है। लेकिन 8 अप्रैल का निर्णय अनुच्छेद 141 के अंतर्गत न्यायिक संदर्भ में दिया गया है और इसलिए बाध्यकारी है।

 

यह संदर्भ क्यों महत्वपूर्ण है?

यह राष्ट्रपति और राज्यपालों की विवेकाधीन शक्तियों पर नियंत्रण से संबंधित गहरे संवैधानिक प्रश्न उठाता है।

यह कार्यपालिका के कामकाज में न्यायपालिका के हस्तक्षेप की सीमाओं की परीक्षा लेता है।

यह राज्य स्तर पर विधायिका और कार्यपालिका के संबंधों पर दीर्घकालिक प्रभाव डाल सकता है।

 

परिणाम:

SC की अंतिम राय 8 अप्रैल के निर्णय को रद्द नहीं कर सकती, लेकिन उसमें कुछ स्पष्टता या व्याख्या जोड़ सकती है।

यदि SC 8 अप्रैल के रुख को दोहराता है, तो यह संवैधानिक पदाधिकारियों पर न्यायिक समयसीमाएं लागू करने के तर्क को और मजबूत करेगा।

यदि राय भिन्न होती है, तो यह न्यायिक निगरानी के खिलाफ विधायी या राजनीतिक प्रतिक्रिया को जन्म दे सकती है।

 

अब आगे क्या होगा?

संविधान पीठ अगस्त मध्य में इस मामले की विस्तृत सुनवाई करेगी। अदालत की राय बाध्यकारी नहीं होगी, लेकिन यह भविष्य की संवैधानिक प्रक्रियाओं को प्रभावित कर सकती है और संभवतः विधायी बदलावों को प्रेरित कर सकती है।

 

निष्कर्ष: 

  • राष्ट्रपतीय संदर्भ किसी निर्णय को नहीं बदल सकता। 
  • लेकिन यह संवैधानिक सिद्धांतों की व्याख्या या पुनर्व्याख्या के लिए प्रेरणा दे सकता है। 
  • ऐसे संदर्भों पर SC की विवेकाधीन शक्ति व्यापक है लेकिन सीमित भी। 
  • यह मामला भारत के संवैधानिक ढांचे में न्यायिक अधिकार और कार्यपालिका विवेक के बीच नाजुक संतुलन को रेखांकित करता है। 
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