जाति जनगणना के प्रति अलग दृष्टिकोण:

जाति जनगणना के प्रति अलग दृष्टिकोण:

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द हिंदू: 12 जून 2025 को प्रकाशित

 

खबरों में क्यों?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में राजनीतिक मामलों की मंत्रिमंडलीय समिति ने आगामी जनगणना में जाति आधारित गणना कराने का निर्णय लिया है।

चूंकि 1931 के बाद भारत में पूर्ण जाति जनगणना नहीं हुई, इसलिए यह निर्णय नीतिगत और सामाजिक न्याय की दृष्टि से महत्वपूर्ण है।

 

पृष्ठभूमि:

1931 की जनगणना अंतिम बार थी जिसमें विस्तृत जातिगत आंकड़े दर्ज किए गए थे।

2011 की सामाजिक-आर्थिक और जाति जनगणना (SECC) में डेटा विसंगतियाँ थीं और उसके परिणाम सार्वजनिक नहीं किए गए।

संविधान के अनुच्छेद 246 के तहत, जनगणना एक केंद्रीय विषय है और यह सातवीं अनुसूची में सूचीबद्ध है।

 

राज्यों की जाति सर्वेक्षणों से मुख्य निष्कर्ष:

बिहार जाति सर्वेक्षण (2023):

ओबीसी + ईबीसी: कुल जनसंख्या का 63% से अधिक

अनुसूचित जातियाँ (SC): 19.65% | अनुसूचित जनजातियाँ (ST): 1.68%

 

सामान्य वर्ग: मात्र 15.52%

34% से अधिक परिवार ₹200/दिन से कम पर जीवन यापन करते हैं

 

तेलंगाना (2025):

पिछड़ा वर्ग (BC): 56.33%, जिसमें 10.08% BC मुस्लिम शामिल

 

मुख्य खुलासा:

हाशिये पर रहने वाले समुदाय संख्या में बहुसंख्यक, पर शिक्षा, रोजगार, शासन में प्रतिनिधित्व अल्पसंख्यक।

केंद्रीय विश्वविद्यालयों में ओबीसी प्रोफेसरों की संख्या मात्र 4% है।

 

सामाजिक प्रबंधन दृष्टिकोण (Social Management Approach) क्या है?

पारंपरिक कल्याणकारी मॉडल अक्सर जाति, वर्ग और लिंग की गहराई तक नहीं पहुंच पाते।

 

सामाजिक प्रबंधन दृष्टिकोण:

आँकड़ों के आधार पर नीति-निर्माण।

जाति को कल्याण के एक चर (variable) के रूप में देखता है, कलंक के रूप में नहीं।

उदाहरण: तमिलनाडु और कर्नाटक ने जाति आंकड़ों के आधार पर आरक्षण और छात्रवृत्ति नीतियाँ बदलीं।

 

संभावित उपयोग:

संस्थानों में विविधता ऑडिट।

PM आवास योजना, स्किल इंडिया आदि योजनाओं की जाति के आधार पर निगरानी।

वित्तीय आवंटन जाति आधारित असमानता को ध्यान में रखते हुए।

 

लोकतांत्रिक जवाबदेही (Democratic Accountability):

जाति जनगणना पारदर्शिता और जवाबदेही को बढ़ावा देती है:

नागरिक समाज, मीडिया, और आम नागरिक यह देख सकते हैं कि संसाधन कैसे वितरित हो रहे हैं।

जाति के भीतर की असमानताओं को भी उजागर किया जा सकता है, जिससे हाशिये के उप-समूहों को लाभ मिल सके।

 

वैश्विक तुलना:

अन्य लोकतंत्रों जैसे अमेरिका, ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका में पहचान आधारित डेटा इकट्ठा किया जाता है:

यह डेटा नागरिक अधिकारों और विविधता नीतियों को लागू करने में सहायक होता है।

तर्क: जाति को गिनना जातिवाद नहीं बढ़ाता, बल्कि छुपी हुई असमानताओं को उजागर करता है।

 

आलोचना और चिंताएं:

आलोचकों का कहना है कि जाति जनगणना से सामाजिक विभाजन और राष्ट्रीय एकता को खतरा हो सकता है।

जवाब: जाति अभी भी हमारे समाज में संरचनात्मक रूप से मौजूद है — इसे नजरअंदाज करने से समस्या खत्म नहीं होती।

यह केवल गिनती नहीं बल्कि सुधार की दिशा में एक कदम है।

 

शासन पर प्रभाव:

डेटा आधारित नीति-निर्माण से:

आरक्षण और कल्याण योजनाओं का बेहतर लक्ष्य निर्धारण।

शिक्षा, रोजगार, और सार्वजनिक सेवाओं में संरचनात्मक सुधार।

न्याय-आधारित शासन की ओर बढ़ाव।

 

निष्कर्ष:

यदि जाति जनगणना को पारदर्शिता और सामाजिक समावेशन की भावना से किया जाए, तो यह सांख्यिकीय कवायद नहीं बल्कि सामाजिक क्रांति बन सकती है।

यह ऐतिहासिक अन्याय को पहचानने और उसे सुधारने का एक मजबूत उपकरण बन सकता है।

इससे जमीन के अधिकार, श्रमिक सुरक्षा, महिला अधिकारों और संवैधानिक साक्षरता जैसे क्षेत्रों में भी सुधार आ सकता है।

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